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________________ १२ संस्कृति के दो प्रवाह योगसूत्र में भी प्राप्त है। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि उपनिषद्परम्परा सुखवादी है और श्रमण-परम्परा दुःखवादी। यदि यह सही है तो सांख्य और योगदर्शन सहज ही श्रमण-परम्परा की परिधि में आ जाते हैं। प्रस्तुत विषय का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो यह फलित होता है कि कोई भी मोक्षवादी परम्परा सुखवादी नहीं हो सकती। जो संसार को सुखमय मानता है, उसके मन में दुःख-मुक्ति की आकांक्षा कैसे उत्पन्न होगी ? दुःख-मुक्ति वही चाहेगा, जो संसार को दुःखमय मानता है । इस विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि दुःखवाद और मुक्तिवाद एक ही विचारधारा के दो छोर हैं। उपनिषदों में सुख और आनन्द की धारणा ब्रह्म के साथ जुड़ी हुई है, संसार के साथ नहीं। नारद ने पूछा---'भगवन् ! मैं सुख को जानना चाहता हूं।' तब सनत्कुमार ने कहा-'जो भूमा है, वह सुख है, अल्प में सुख नहीं है।' नारद ने फिर पूछा-'भगवन् ! भूमा क्या है ?' सनत्कुमार ने कहा-'जहां दूसरा नहीं देखता, दूसरा नहीं सुनता, दूसरा नहीं जानता, वह भूमा है। जहां दूसरा देखता है, दूसरा सुनता है और दूसरा जानता है, वह अल्प है। तैत्तिरीय में ब्रह्म और आनन्द की एकात्मकता बतलाई गई है। जरा, मृत्यु, जन्म, रोग और शोक-ये जहां नहीं हैं, वही मोक्ष है और वही आनन्दमय आस्पद है।' यह धारणा श्रमण परम्परा से भिन्न नहीं है। श्रमणों ने मोक्ष को सुखमय माना है। इस अभिमत के अभाव में उनका दृष्टिकोण एकान्ततः निराशावादी हो जाता है । कुमारश्रमण केशी ने गौतम से पूछा-'गौतम ! शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित होते हुए प्राणियों के लिए क्षेम, शिव और अनाबाध स्थान किसे मानते हो?' गौतम ने उत्तर दिया-'मुने ! लोक के शिखर में एक वैसा शाश्वत स्थान है, जहां पहुंच पाना बहुत कठिन है और जहां नहीं है जरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना।' _ 'स्थान किसे कहा गया है'-केशी ने गौतम से पूछा ? गौतम बोले-'जो निर्वाण है, जो अबाघ है, जो क्षेम, शिव और अनाबाध है, १. छान्दोग्य उपनिषद्, ७॥२२॥१;७।२४।१ । २. तैत्तिरोय, ३२६.१ : आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् । ३. (क) छान्दोग्य उपनिषद्, ४८१८१३ : न जरा न मृत्युनं शोकः । (ख) श्वेताश्वतर, २।१२ : न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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