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________________ धर्म की धारणा के हेतु १३ जिसे महान की एषणा करने वाले प्राप्त करते हैं, भव-प्रवाह का अन्त करने वाले मनि जिसे प्राप्त कर शोक से मक्त हो जाते हैं, जो लोक के शिखर में शाश्वत रूप से अवस्थित हैं, जहां पहुंच पाना कठिन है, उसे मैं 'स्थान' कहता हूँ।" __ इसी भावना के संदर्भ में मृगापुत्र ने अपने माता-पिता से कहा था—'मैंने चार अन्त वाले और भय के आकर जन्म-मरण रूपी जंगल में भयंकर जन्म-मरणों को सहा है। ___'मनुष्य जीवन असार है, व्याधि और रोगों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है । इसमें मुझे एक क्षण भी आनन्द नहीं मिल रहा है । _ 'मैंने सभी जन्मों में दुःखमय वेदना का अनुभव किया है। वहां एक निमेष का अन्तर पड़े उतनी भी सुखमय वेदना नहीं है।' उसका मन संसार में इसीलिए नहीं रम रहा था कि उसकी दृष्टि में यहां क्षणभर के लिए भी सुख का दर्शन नहीं हो रहा था। बन्धन-मुक्ति की अवस्था में उसे सुख का अविरल स्रोत प्रवाहित होता दीख रहा था। महामनि कपिल ने चोरों के सामने एक प्रश्न उपस्थित किया था--- इस दुःखमय संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं।' यह प्रश्न निराशा की ओर संकेत नहीं करता, किन्तु इसका इंगित एकान्त सुख की ओर है । भगवान् ने कहा था-पूर्ण ज्ञान का प्रकाश, अज्ञान और मोह का नाश तथा राग और द्वेष का क्षय होने से आत्मा एकान्त सुखमय मोक्ष को प्राप्त होता है। धर्म का आलम्बन उन्हीं व्यक्तियों ने लिया, जो दुःखों का पार पाना चाहते थे। उक्त विश्लेषण से यह फलित होता है कि सर्व-दुःख-मुक्ति धर्म करने का प्रमुख उद्देश्य रहा है। परलोकवादी दृष्टिकोण धर्म की धारणा का मुख्य हेतु रहा है-परलोकवादी दृष्टिकोण । परलोकवाद आत्मा की अमरता का सिद्धान्त है। अनात्मवादी आत्मा को अमर नहीं मानते। अतः उनकी धारणा में इहलोक और परलोक-यह विभाग वास्तविक नहीं है। उनके अभिमत में वर्तमान जीवन अतीत और अनागत की शृङ्खला से मुक्त है । आत्मवादी धारणा इससे भिन्न है । उसके १. उत्तराध्ययन, २३१८०-८४ । ४. वही, ३२।२। २. वही, १९४४६,१४,७४ । ५. वही, १४१५१-५२ । ३. वही, ८।१। ६. वही, ३२।११०-१११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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