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________________ भावभूमि पड़ता है तो कृत्रिम उपायों से ही आंसू लाने पड़ते हैं, स्वाभाविक खुशी के मौके पर भी आंसू आ जाते हैं किंतु दुःख के आंसुओं का और सुख के आंसुओं का रसायनिक विश्लेषण भिन्न होता है। दर्शन और विज्ञान दोनों कारण-कार्य की श्रृंखला पर विचार करते समय एक निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कार्य स्थूल होता है, कारण सूक्ष्म होता है। एक छोटे से बीज से इतना बड़ा वट वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। जब हम अपने कारण की खोज में निकलते हैं तो शरीर का कारण प्राण प्रतीत होता है। जब प्राण के भी कारण की खोज करते हैं तो पता चलता है कि प्राण से सूक्ष्म मन है। जहां मन जाता है वहीं प्राण जाता है-यह हम पहले ही बता चुके हैं। जब मन की प्रवृत्तियों की भी खोज करते हैं तो पता चलता है कि विचार मन को घुमाते रहते हैं। जब विचारों के मूल की खोज करते हैं तो हम भाव तक पहुंचते हैं। भाव का भी मूल है-चेतना। चेतना से परे कुछ नहीं है-सा काष्ठा सा परागतिः । यह चेतना पांच कोशों में बंद है-भाव में विचार, विचार में मन, मन में प्राण तथा प्राण में शरीर सन्निहित है। चेतना भाव से भी परे है--भावातीत है। शरीर को अन्नमय, प्राण को प्राणमय, मन को मनोमय, विचार को विज्ञानमय तथा भाव को आनन्दमय कोश कहा जा सकता है। चेतना सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल से परे द्वन्द्वातीत है। उसी चेतना को हमने ऊपर द्रष्टा साक्षी कहा है। हम द्वन्द्व में जीते हैं तो चेतना हमसे चूक जाती है। हम द्वन्द्वातीत साक्षिभाव में जायें तो चेतना के शुद्ध रूप का साक्षात्कार हो, पर सामान्यतः यह यात्रा क्रमशः की जाती है। शरीर से प्राण, प्राण से मन, मन से विचार तथा विचार से भाव तक की यात्रा करनी होती है। तब भावातीत तक पहुंचा जाता है। इस सारी यात्रा में साक्षिभाव ही मुख्य है। शरीर, प्राण, मन, विचार तथा भाव सबको देखें, पर साक्षिभाव से। यही प्रेक्षाध्यान है। __साक्षी द्रष्टा है। दृश्य बदलता है, द्रष्टा वही रहता है। पांच वर्ष की अवस्था में भी मैं अपने को और दूसरों को देख रहा था, आज ६२ वर्ष की अवस्था में भी मैं अपने को और दूसरों को देख रहा हूं। दृश्य बदल गये हैं किंतु द्रष्टा देखने वाला वही है। जिसने पांच वर्ष की अवस्था में देखा था और जो ६२ वर्ष की अवस्था में देख रहा है-वे दोनों एक ही हैं। यह द्रष्टा ही आत्मा है। यह द्रष्टा जब अपने को दृश्य से एकाकार कर लेता है तो लगता है कि द्रष्टा बदल रहा है, क्योंकि द्रष्टा और दृश्य में भेद न कर पाने के कारण दृश्य का बदलना द्रष्टा का ही बदलना समझ लिया जाता है। जब हम द्रष्टा और दृश्य में भेद करते हैं तो पता चलता है कि द्रष्टा नहीं बदला। यही जैन का भेद-विज्ञान है और यही सांख्य की विवेक-ख्याति है। द्रष्टा जब साक्षिभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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