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________________ ३४ महाप्रज्ञ-दर्शन शरीर के मरने पर विचार नहीं मरता यह घटना कोई आकस्मिक घटना नहीं है, उसके पीछे एक गहरा तथ्य है। जब हम कुछ सोचते हैं तो हमारी वह सोच हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका पर अंकित हो जाती है। यदि वह कोशिका हमसे कटकर अलग भी हो जाये तो भी हमारे उस चिन्तन के संस्कार को अपने साथ ले जाती है। हमारा चिन्तन इस प्रकार हमारे शरीर का रूपान्तर करता रहता है। इस प्रकार हमारा विचार हवा में नहीं खो जाता, शरीर में सुरक्षित रह जाता है। जैन आगमों में भगवती-सूत्र का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसमें बहुत से वैज्ञानिक तथ्यों का संकलन है। भगवती सूत्र कहता है कि यदि एक व्यक्ति मर जाये और श्मशान में पड़ी उसकी हड्डी को शस्त्र रूप में इस्तेमाल करके कोई व्यक्ति किसी प्राणी की हत्या कर दे तो उस हत्या की जिम्मेदारी उस व्यक्ति की मानी जायेगी जिसकी वह हड्डी है। देखने में बात बिलकुल गलत लगती है लेकिन विश्व के नियम बहुत विचित्र हैं। हमारी हड्डी भी हमारे संस्कारों से संस्कारित हुये बिना नहीं रहती। हम हिंसक विचारों को पालते रहते हैं तो वे हिंसक विचार हमारे कण-कण में व्याप्त हो जाते हैं। जिस हड्डी से किसी अन्य व्यक्ति ने किसी को मारा, वह हड्डी किसी अहिंसक व्यक्ति की नहीं हो सकती। जिस व्यक्ति की वह हड्डी है आज वह हड्डी उस व्यक्ति से भले ही जुड़ी हुई नहीं है किंतु वह व्यक्ति अपनी उस हिंस्र मनोवृत्ति की जिम्मेदारी से बच नहीं सकता जिसे हिंस्र मनोवृत्ति ने उस हड्डी में वे हिंस्र तरंगें-(वेव)-पैदा कर दी, जिनसे प्रभावित होकर किसी व्यक्ति को यह सूझा कि वह उस हड्डी को हथियार रूप में इस्तेमाल करके किसी की हत्या कर दे। सूक्ष्म जगत् के नियम बिलकुल अलग भी हैं, बहुत चौंकाने वाले भी हैं। सूक्ष्म से स्थूल की ओर __वैज्ञानिक जैसे-जैसे सूक्ष्म जगत् में प्रवेश कर रहे हैं, उनके सामने स्पष्ट हो रहा है कि सूक्ष्म स्थूल को कैसे प्रभावित करता है; भाव कैसे हमारे सूक्ष्म शरीर को और सूक्ष्म शरीर कैसे हमारे स्थूल शरीर को प्रभावित करता है। हमारा गहरा दुःख तो एक सूक्ष्म वस्तु है उसका न कोई आकार है न कोई ऐसा चिन्ह जिसे हम देख सकें या छू सकें। दुःख का केवल हम अनुभव कर सकते हैं किंतु वही दुःख तत्काल साकार बनकर आंखों से आंसुओं के रूप में छलक पड़ता है। यह सूक्ष्म द्वारा स्थूल के प्रभावित होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मजेदार बात यह है कि बिना दुःख के यदि हम आंखों में आंसू लाना चाहे तो आंसू आयेंगे ही नहीं। कुशल अभिनेताओं को भी जब नाटक आदि में रोना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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