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________________ महाप्रज्ञ-दर्शन में अपने को दृश्य से अलग करके देखता है तो पता चलता है कि दृश्य आते हैं और जाते हैं किंतु द्रष्टा बना रहता है। यही आत्मा का अजरत्व है और यही अमरत्व है। वार्धक्य जरा नहीं है बुढ़ापा आता है तो आत्मा बूढ़ी नहीं होती, शरीर बूढ़ा होता है। जो शरीर को ही आत्मा समझ लेते हैं वे बूढ़े होने पर अपने को भी बूढ़ा मान लेते हैं-उनका मनोबल गिर जाता है। जो द्रष्टा को दृश्य से अलग करके देख सकते हैं वे शरीर के बूढ़ा हो जाने पर भी अपने को बूढ़ा नहीं मान बैठते-उनका उत्साह पूर्ववत् ही बना रहता है। बुढ़ापे को बतलाने के लिए संस्कृत में दो शब्द हैं-जरा और वृद्धता। शरीर के अवयव एक कालावधि के बाद जीर्ण होना प्रारम्भ होते हैं-उनका यह स्वभाव है। यह जरा है-यह शरीर का धर्म है। किंतु कालावधि के साथ ज्ञान की वृद्धि होती है, यह वृद्धता है-यह आत्मा का धर्म है। ___ महाकवि कालिदास ने जरा और वृद्धता के बीच भेद किया है। उन्होंने लिखा कि राजा दिलीप का युवावस्था में भी धर्म के प्रति प्रेम था अतः वे जरा के बिना भी वृद्ध हो गये थे तस्य धर्मरतेरासीद वृद्धत्वं जरसा बिना। दिलीप की अवस्था कम थी अतः उनका शरीर जीर्ण नहीं हुआ था किंतु उनकी बुद्धि में परिपक्वता आ गयी थी कि वे विषयों के प्रति आकृष्ट न होकर धर्म के प्रति ही आकृष्ट होते थे-यही उनकी वृद्धता थी। मनु ने भी जरा और वृद्धता के बीच भेद किया है। बालों का सफेद होना जरा का लक्षण है किंतु बालों का सफेद होना वृद्धता का सूचक हो यह आवश्यक नहीं। लोग जीर्ण हो जाते हैं किंतु उनमें परिपक्वता नहीं आती तो ऐसे लोगों को हम जरा ग्रस्त तो कहेंगे किंतु वृद्ध नहीं कहेंगे। __ न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः। यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः ॥ अभिप्राय यह है कि जरा देह की स्थिति है, वृद्धता ज्ञान की स्थिति है। जरा और वृद्धता में यह भेद होने पर भी दोनों का कोई संबंध न हो-ऐसा नहीं है। मन और शरीर का जो संबंध है उसके कारण जो वृद्धि करते रहते हैं उनका शरीर भी युवा बना रहता है। जिनका वृद्धि करना बंद हो जाता है उनका शरीर भी जीर्ण हो जाता है। जिनके जीवन में कोई प्रयोजन रहता है, उनका जीवन उत्साह से भरा रहता है। जो अपने जीवन को निरर्थक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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