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________________ रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे मनःपादः • वर्तमानं मनः स्वरूपतः ० त्रैकालिकं वस्तुज्ञानरूपतः ० श्लिष्टचित्तैकाग्रता धारणा • सुलीनचित्तैकाग्रता ध्यानम् • उभे धर्मध्यानम् स्वरूप की दृष्टि से मन वर्तमान ही होता है । वस्तुज्ञान की दृष्टि से वह कालिक होता है । श्लिष्ट चित्त की एकाग्रता को धारणा और सुलीन चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जा सकता है। इन दोनों को एक शब्द में धर्मध्यान कहा जा सकता है । • ज्ञानवैराग्याभ्यां मनश्शान्तिः मन को शांत करने का मुख्य मार्ग है - श्रुत की भावना, ज्ञान का अभ्यास वैराग्य, आत्मज्ञान का अभ्यास, आत्मज्ञान का निरन्तर विचार | २८१ ० शान्ते मनसि सत्यस्तित्वाभिव्यक्तिः जब मन शांत होता है तब अस्तित्व प्रकट होता है। अस्तित्व और मन - ये दोनों साथ-साथ बहुत कम रहते हैं। जब मन सक्रिय रहता है तब अस्तित्व सोया रहता है और जब मन निष्क्रिय होता है तब अस्तित्व जागता है । ० मनस्तटस्थं ० न चलं न स्थिरम् मन का स्वरूप चेतना की धारा से निर्मित होता है। वह अपने आप में न कलुषित है और न निर्मल, न चंचल है न स्थिर । जैसा उत्पादन होता है वैसा ही वह निर्मित हो जाता है । I o चेतनाचेतनमनसोः संयोगस्संज्ञानम् जिसमें चेतन और अचेतन दोनों मनों का योग होता है, काँशियस माइण्ड और सब - काँशियस माइण्ड दोनों का योग होता है, उसे संज्ञा या संज्ञान कहते हैं । ० स्थूलमनोनिष्क्रियता चेतनमनोजागरणं योगः अचेतन मन को जगाने और स्थूल मन को सुलाने का साधन है - योग । ० चित्तशोधनं प्रायश्चित्तम् प्रायश्चित्त का अर्थ है - चित्त का शोधन | जिससे चित्त का शोधन होता है उस प्रक्रिया का नाम है- प्रायश्चित्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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