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________________ महाप्रज्ञ-दर्शन ० मनआलोक: सरलता ० मनोऽन्धकारो माया सरलता मन का वह प्रकाश है जिसमें कोई भी वस्तु अस्पष्ट नहीं रहती। माया मन का वह अंधकार है, जिसमें आदमी भटकता है। ० अतीन्द्रियचेतना वीतरागता - वीतराग होने का अर्थ है-चेतना की सूक्ष्म भूमिका में प्रवेश पा जाना। यह अतीन्द्रिय चेतना की भूमिका है। ० पदार्थजागरूकता रागः ० आत्मजागरूकता वैराग्यम् अप्रमाद की चेतना का अर्थ है-अपने प्रति जागरूक होना। राग का अर्थ है-पदार्थ जगत् का साक्षात्कार । वैराग्य का अर्थ है-आत्मा का साक्षात्कार । उपाधि का अर्थ है-कषाय। ० चैतन्यसततोपयोगोऽप्रमादः ० तत्र निरन्तरं सुखम् अप्रमाद है चैतन्य का सतत उपयोग। अप्रमाद है सुखानुभूति की निरन्तरता। ० प्रमाद-निद्रा-कषायोत्तेजना अनुत्साहः प्रमाद, निद्रा, कषाय की उत्तेजना अनुत्साह है। ० अनुकूलनं सहिष्णुता व्यक्ति सहन करना सीख जाए तो प्रतिकूल स्थितियां अनुकूल बनती चली जाती हैं। ० अभ्यासः सायासः ० वैराग्यमनायासः ___ अभ्यास कृत होता है, अर्जित नहीं, पैराग्य स्वाभाविक होता है कृत नहीं। ० वैयक्तिकमध्यात्मम् ० तन्न विनिमयाम् अध्यात्म भौतिक वस्तु नहीं है इसीलिए वह प्रसरणशील भी नहीं है और उसका विनिमय भी नहीं हो सकता। वह आत्म-केन्द्रित है और नितान्त वैयक्तिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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