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________________ २८० महाप्रज्ञ-दर्शन जब हम कहते हैं-चैतन्य को केन्द्रित करो तो उसका अर्थ है-चैतन्य की धारा को कषाय की ओर प्रवाहित करो। जब हम कहते हैं-चित्त को केन्द्रित करो तो उसका अर्थ है-चित्त की निर्णयात्मक शक्ति को आत्मा में विलीन करो। जब हम कहते हैं-मन को केन्द्रित करो तो उसका अर्थ-संकल्प-विकल्प का निरोध करो। ० मननं मनः ० निर्विकल्पममनः ० तत्र ध्यानम् ० तत्र भावपरिवर्तनम् मन का अर्थ है-मनन शक्ति । अमनस्क-निर्विचार या निर्विकल्प। अमन की अवस्था-मन की समाप्ति, ध्यान की अवस्था। ध्यान का अर्थ है-भावों को बदलना, विचारों को रोकना नहीं। ० चेतनञ्चित्तम् ० अचेतनं मनस्तदुपकरणम् चित्त हमारी चेतना है। मन अचेतन है। चित्त ज्ञाता है मन उसका एक यंत्र है, उपकरण है। ० बहिर्मुखचेतना मनः जो चेतना बाहर जाती है उसका प्रवाहात्मक अस्तित्व ही मन है। ० चेतनं पौद्गलिकञ्चेति द्विविधं मनः ० पौद्गलिकं सहायकञ्चेतनस्य ___ मन दो प्रकार का होता है-चेतन और पौद्गालिक । पौद्गलिक मन ज्ञानात्मक मन का सहयोगी होता है। उसके बिना ज्ञानात्मक मन अपना कार्य नहीं कर सकता। ० चित्तक्रियान्वितिकारकं मनः मन क्रियातंत्र का एक अंग है, उसका कार्य है-चित्त के निर्देश की क्रियान्विति करना। ० स्मृति-सङ्कल्प-कल्पनेति त्रिकालविषयं मनः मन का अर्थ है-संकल्प-विकल्प, स्मृति और चिन्तन, कल्पना । मन तीनों कालों में बंटा हुआ है। ० न मनसः स्थिरत्वम् मन को स्थिर करने की बात केवल एक भ्रान्ति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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