SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान है । रचना काल के सम्बन्धी जानकारी नहीं मिलती है। प्राप्त तीनों श्लोक में अनुष्टुप छंद का प्रयोग मिलता है। विषय-वस्तु : प्रस्तुत तीनों श्लोक के आधार पर हम कह सकते हैं कि आचार्यश्रीने विंशिका कृति के माध्यम से गुरुजनों का गुणानुवाद किया होगा । तीनों श्लोक का अनुवाद : मानकर, १. अभयदेवसूरि की श्रुत सम्पति की प्राप्ति के कारण चैत्यवास को पापकारी २. श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्री जिनवल्लभगणि ने चैत्यवास को छोड़ दिया। ३. प्राणियों का भद्र (कल्याण) करनेवाले श्री देवभद्रसूरि ने इस चित्रकुट अर्थात् चित्तौड़ दुर्ग में जिनवल्लभगणि को आचार्य पद दिया। विशेष- इन तीन श्लोकों से कुछ ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती है । इस पर से लगता है कि कृति ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रही होगी । पूर्ण कृति उपलब्ध हो जाय तभी कुछ विशेष कह सकते हैं । *** ६. पद-व्यवस्था पद व्यवस्था नामक लघुकृति की रचना संस्कृत गद्य में हुई है । आचार्य जिनदत्तसूरि द्वारा पदस्थों के लिए इस पद - व्यवस्था की रचना की गई है। विषय-वस्तु : ६. गच्छाधिपति, सामान्य आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य, महत्तरा साध्वी आदि नगर प्रवेश में क्या-क्या करना चाहिये उसका वर्णन यहाँ बताया गया है। उनके पदानुसार सत्कार-पूजा का निरूपण किया गया है। यह कृति मूल प्रकाशित है।' यहाँ पर कृति का अनुवाद दिया जाता है : युगप्रधान जिनदत्तसूरि, अगरचंदजी नाहटा, पृ. ९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy