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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ७५ विषय-वस्तुः स्तुति थुई) की परम्परा अनुसार प्रथम पद्य में श्री वीरजिन को नमस्कार, द्वितीय पद्य में ऋषभादि जिनेश्वरों को नमस्कार किया गया है। तृतीय पद्य में जिनागमजिनवाणी की और चतुर्थ पद्य में तीर्थंकर के शासन देवता की स्तवना की गई है। इसी मान्यतानुसार इस लघु कृति की रचना जिनदत्तसूरि ने की है। इस स्तुति का आज भी खरतरगच्छीय परम्परावाले प्रतिक्रमण में त्रयोदशी के दिन एवं मांगलिक दिवसो में बोलते हैं। अनुवादः पद्य १. सर्व विघ्न का घात करनेवाले श्री वीर-जिन को नमस्कार हो। जिसके चरण नमस्कार से ही प्राणीगण स्वस्थ और स्थिर होते हैं। २. जिसके चरण-युग को इन्द्रों ने नमस्कार किया है ऐसे ऋषभादि जिनेश्वरों को नमस्कार करता हूँ। उन जिनेश्वरों के वचन पालन करने में तत्पर लोग दुःखों से मुक्ति पाते हैं। ३. देवगणों के सामने जिनेश्वर भगवान अर्थ को कह और गणधर भगवंत तीर्थस्थापना के समय उस अर्थ को सूत्र में गुंथते है ऐसा मत (प्रवचन)प्राणियों को मुक्ति देनेवाला है। ४. जिनशासन (भक्त)के सुख में प्रवृत्त शासनदेवताओं और अन्य देव-देवियों के साथ इन्द्र श्री वर्धमान जिनेश्वर के मत में प्रवृत्त भव्यजनों को (श्लेष से वर्धमानसूरि और “जिनदत्त'' के मत में प्रवृत्त भव्य जनों को) हमेशा अमंगलों से बचाये रखे। विशेष-इस अत्यंत लघुरचना में भी दादा साहब ने अपने श्लेष अलंकार के नैपुण्य का परिचय दिया है। ५. विंशिका आचर्य श्री जिनदत्तसूरिजी की संस्कृत में रचित यह कृति है। प्रस्तुत कृति में २० श्लोक होंगे, क्योंकि विंशिका अर्थात् २० श्लोक का स्तोत्र । लेकिन हमें अगरचंदजी नाहटा के अनुसार- गणधरसार्द्धशतक गाथा ८४ की बृहद्वृत्ति से केवल तीन श्लोक ही उपलब्ध हुए हैं। अन्य श्लोक अभी तक मिले नहीं ५. युगप्रधान जिनदत्तसूरि-अगरचंदजी नाहटा, पृ.१५१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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