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________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान अर्थात् श्री जिनवल्लभसूरीश्वर महाराजा के चरण कमलों को प्राप्त करके ज्ञानरूपी मधु का पान करता हुआ जन भ्रमर अमर हो जाता है। शुद्ध ज्ञानी होने के कारण समस्तपवित्र शास्त्रों को भी वह जानता है ४८ गुरु जिनवल्लभ के गुण अपरम्पार हैं। उनके गुणों का वर्णन करना अति कठिन है । जो भव्यात्मा गुरु जिनवल्लभ की आज्ञा का पालन करेगा, उनके सात भव-: - भयों नाश होगा और आत्मलक्ष्मी को प्राप्त करेगा। आचार्य जिनदत्तसूरिजी की गुरुभक्ति अजोड़ थी । प्रत्येक कृति में अपने गुरु के गुणों का वर्णन करने में कहीं भी चूके नहीं हैं । यह उनकी विशिष्ट गुरु भक्ति का प्रमाण है । इस प्रकार उन्होने गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान को ही सर्वोपरि बताया है। यह भी जान लेने की आवश्यकता है कि गुरु प्रदत्त ज्ञान के द्वारा I मनुष्य जन्म जन्मांतर के बन्धन से मुक्त हो सकता है। उस ज्ञान के आधार पर संसार किसी भी कोने में सिंह की भाँति अपने ज्ञान का प्रचार-प्रसार सिंह की दहाड़ के साथ कर सकेगा। १९४ अब गुरु जिनवल्लभसूरिजी की गुरु परम्परा का वर्णन गाथा सं.४४ के द्वारा प्रस्तुत करते हैं तसु पयपंकय-भसलु सलक्खणु चरणकरणु ॥ ४४ ॥ आचार्य युगप्रधान श्री वर्द्धमानसूरिजी के शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि, उनके शिष्य नवांगी वृत्तिकार" श्री अभयदेवसूरि, उनके चरणाश्रित जिनवल्लभसूरिजी हुए। जिनके गुणों का अन्त ही नहीं, अपार हैं, असीम हैं। उनकी कृपा से मैं (जिणदत्त ) धर्म में स्थापित हुआ हूँ । इस प्रकार गुरु परम्परा का वर्णन किया गया है। ४८. ४९. वद्धमाणसूरिसीसु जिणेसरसूरिवरु तासु सीसु जिणचंद जईसरु जुगपवरु । अभयदेउ मुणिनाहु नवंगह वित्तिकरु सप्तभय इहलोकभय - परलोकभय अकस्मात् भय- आजीवभय - मरणभय- असिभय लोकभय । नवांगी वृत्ति - जैनों में ४५ आगमों का विभाजन निम्न प्रकार है - ११ अंग । १२ उपांग । ४ मूल । ६ छेद । १० पइण्णा अर्थात् प्रकीर्णक । २ चूलिकासूत्र / कुल ४५ आगमश्री अभयदेवसूरि ने ११ अंगों में से प्रथम द्वितीय आचारांग और सूत्रकृतांग को छोड़कर नव अंग सूत्रों पर टीका लिखी थी। इसलिए नवांगी वृत्तिकार कहे जाते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International *
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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