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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १९५ इस प्रकार गुरु परम्परा का यहाँ वर्णन किया गया है। अन्तिम गाथा में ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार अपना नाम (श्री जिनदत्त)स्पष्ट करते हैं । पुनः जिनदत्त के द्वारा स्तुति फल का वर्णन निम्न प्रकार है इय जुगपवरह सूरिहि सिरिजिणवल्लहह, नायसमयपरमत्थह बहुजणदुल्लहह । तसु गुणथुइ बहुमणिण सिरिजिणिदत्तगुरु करइ सु निरुवमु पावइ पइ जिणदत्त गुरु ।। ४७ ॥ इस प्रकार युगप्रधान ज्ञान सिद्धान्तपरमार्थ, जीवों के लिए दुर्लभ ऐसे श्रीमज्जिनबल्लभ सूरीश्वरजी महाराज की गुण स्तुति बहुमानपूर्वक, श्री सम्पन्न जिनेश्वर भगवान के दिये हुए शासन के पालन से गुरूता प्राप्त ऐसा जो श्री जिनदत्तगुरु की भव्य स्तुति करता है वह श्री जिनेश्वर भगवान प्रदत्त अर्थात् सिद्धान्त में दिखाए हुए गुरु निरूपम-मोक्ष पद को प्राप्त करता है। इस प्रकार विवेचन स्वरूप कहा जा सकता है कि संसार की आशातनाओं से बचने के लिए, भव से छुटकारा पाने के लिए यदि कोई रास्ता संसार में है तो वह है श्री जिनेश्वर भगवान प्रदत्त सिद्धान्त एवं सिद्धान्तों के अनुरूप ही चैत्यों एवं जिनमन्दिरों की नियमावली के द्वारा गुरुओं की वन्दना करके एवं धर्म मार्ग पर चलकर परमपद को प्राप्त करने के लिए सतत प्रयासशील रहना। इस प्रकार चर्चरी ग्रन्थ में गुरु स्तुति करते हुए विधि मार्ग और अविधि मार्ग का निरूपण किया गया है। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि (अ) यहाँ प्राचीन चर्चरी नर्तन में विद्यमान श्रृंगार रस पूर्ण कथानक की अपेक्षा धार्मिक शास्त्र समीक्षा तथा श्रावकाचार का वर्णन किया गया है। (आ) चारित्रिक शैथिल्य दूर करने हेतु लकुटरास, नर्तन, वाद्य, क्रीडा, कौतुक आदि को निषिद्ध माना गया है। इससे सिद्ध होता है कि इस रचना से पूर्ववर्तीकाल में जैन चैत्यों में भी श्रृंगाररस पूर्ण चर्चरियों का गुंजार विद्यमान था। (इ) चर्चरी का साहित्यिक स्वरूप गीति काव्य में विकसित हो गया था। जिसका परवर्ती जैन कवियों ने अनुगमन किया है। (ई) उपाध्याय जिनपाल ने चर्चरी की व्याख्या में (अपभ्रंश काव्यत्रयीप्रस्तावना, पृ. सं. ११४)लिखा है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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