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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान १४९ से पूजा की जाती है। आरती घुमा लेने के बाद गीत, उपगीत, नृत्य, नाटक एवं कीर्तनादि सुकृत्य किये जाते हैं। जिससे वातावरण परिशुद्ध होता है। कप्पइ न लिंगिदिव्वं तिहिजिणभवणम्मि सव्वहा दाउं । सासणसुराण पूया नो कायव्वा सुदिट्ठीहिं ।। २५ ॥ पव्वज्जागहणुट्ठावणाइ नंदीय वि कीरइ निसाए। नमिविवाहक्खाडयरहचलणा रायमइ सोगो॥२६॥ विधि जिनभवन में लिङ्गि द्रव्य (साधु का द्रव्य)नहीं देना चाहिए । सम्यक् दृष्टिवाले श्रावक को जिनभवन में शासनदेव की पूजा नहीं करनी चाहिए । प्रव्रज्याग्रहण, अनुष्ठानादि में नंदी की रचना रात्रि में नहीं करना चाहिए। नेमिविवाह, अखाड़ा वर्णन, रथचलन, राजीमती शोक आदि कार्य जिन भवनों में वर्जित है। अतः इन कार्यों को न करना चाहिए। गृहस्थों के कर्मो को संक्षेप में वर्णन करते हुए कहते हैं कि पुत्तिं विणावि गिहिणो कुणंति चेलंचलेण किइकम्मं । पाउरणेणं खंधे कहण जइणो परिभमन्ति ॥ २८ ॥ गृहस्थ लोग मुहपत्ती बिना वस्त्र के आँचल से कृति कर्म कर सकते हैं। कन्धे पर पागरणी (साधु सन्तों के द्वारा उपाश्रय में ओढ़ी जानेवाली छोटी चादर पागरणी कहलाती है )रखकर साधुलोग भ्रमण करते हैं। प्रस्तुत कृति में चैत्यवासियों की उत्सूत्र बातों का उल्लेख करते हैं। तदुपरान्त आचार्यश्री का कहना है कि जो जिनदत्त आज्ञा को मानते हैं वे विधिमार्गानुयायी एवं जिनसूत्रानुयायी होने से उक्त उत्सूत्र मार्गों का आचरण नहीं करते हैं क्योंकि उत्सूत्र लेशमात्र आचरण भी महान अनर्थ का कारण होता है। श्रावकों के आचार-मूलक जीवन पर इस कृति के द्वारा सुन्दर प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत कृति का “उपदेश रसायन रास' में भाव साम्य द्रष्टव्य है। *** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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