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________________ १४८ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान रात्रि में वर्जित कर्मो को गाथा सं. ४ के द्वारा इस प्रकार बताया गया है : जिन प्रतिष्ठा, स्नान करना, नैवेद्य चढ़ाना, दान देना, आदि श्रेष्ठ कार्य रात्रि में नहीं होने चाहिए। (१) रात्रि के समय नारियों एवं विशेष करके नवयुवतियों का चैत्यों में प्रवेश निषिद्ध माना गया है। क्योंकि इसके द्वारा चैत्यवासियों के पतन की भूमिका कभी भी तैयार हो सकती है। (२) कार्तिक अमावस्या को पश्चिम रात्रि में वीर प्रतिमा को स्नान एवं पूजा विधि सम्पन्न होती है। चैत्य में वाजिन्त्र, नृत्य,गीत, लगुड रास (डांडिया रास), रासड़ा, शासन देव का डोला (अर्थात् हिचका)देना, जल क्रीड़ा करना आदि जो नर-नारियों द्वारा किये जाते हैं वे सभी कार्य चैत्य में नहीं होने चाहिए । भक्ति के अभिगमों पर यदि ध्यान दिया जाय तो उपरोक्त सारे साधन बाह्य एवं विकारी प्रतीत होते हैं। विकार अर्थात् संत भगवन्तों के भक्ति मार्ग का अवरोधक। सभी शारीरिक विकारों के साथ केवल चक्षु और श्रोत्र के विकार मात्र ही रह जाते हैं। उनके द्वारा प्रभुभक्ति सम्पन्न नहीं हो सकती है। अतः संयम के स्थान पर उत्तेजक सामग्रियों का सात्विकता की दृष्टि से परिहार होना चाहिए। (१-१५) पूजा का सर्वसामान्य अर्थ तो होता है कि आदर, सम्मान तथा नियमपूर्वक समर्पण भाव । परन्तु धार्मिक नियमों को धर्म एवं सम्प्रदाय के आधार पर सभी धर्मों ने अपने ढंग से बनाया है। यहाँ पर जब हम चैत्यवास की चर्चा कर रहे हैं तो उसी से सम्बन्धित नियमों को ध्यान में रखकर वर्णन करेंगे । इसलिए ‘उत्सूत्र कुलक' में पूजा सम्बन्धी नियमों का वर्णन कुछ इस प्रकार है आरत्तियमेगजिणिंदपडिमपुरओ कयं न निम्मल्लं । परिहाविज्जइ जेणं वत्थेणं तमवि निम्मल्लं ।। २१ ॥ आरात्तियमुवरिजलं भामिज्जइ तह पयत्तओ पूअं। तम्मि य जमुत्तरते तदुवरि कुसुमंजलिखेवो ।। २२ ।। आरत्तियं धरिज्जइ जयंतरालेऽवि उत्तरंतं तु। कीरइ नर्से गीयं वाइयमुवगीय नटुं च ॥ २३ ॥ जिनेश्वर भगवान की आरती के विषय में बताया गया है कि- प्रथम आरती निर्माल्य नहीं होती परन्तु धारण किया हुआ वस्त्र निर्माल्य (अर्थात् दुबारा नहीं चढ़ाये जाते है।) हो जाता है। आरती प्रज्वलित करके पुण्यदोष के द्वारा उसकी गन्धादि द्रव्यों For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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