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________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ११. उत्सूत्रपदोद्घाटन कुलक (“ उत्सूत्रकुलकम्”) १४७ "उत्सूत्रकुलकम्" नामक ग्रन्थ युगप्रधान आचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी द्वारा रचित है। इसकी रचना के समय से सम्बन्धित कोई पूर्व निश्चित जानकारी उपलब्ध न होने से रचनासमय के बारे में कुछ निश्चिततापूर्वक नहीं कहा जा सकता है। परन्तु यह ध्रुव ही है कि बारहवीं शताब्दी की रचनाओं में "उत्सूत्रकुलकम्" का भी अपना स्थान है। तो यह प्राकृत भाषा में रची गयी है । इसमें गाथाओं की संख्या ३० है । इसकी प्रथम गाथा में शार्दूलविक्रीडित छन्द है । २ से ३० पद्य तक गाथा छन्द का प्रयोग है । भाषा की दृष्टि से लोकभोग्य एवं सरल शब्दों का प्रयोग किया गया है। सामासिक शब्दों का प्रयोग तो है परन्तु कठिनता से रहित है। अगरचन्दजी नाहटा के अनुसार यह ग्रन्थ श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार से तथा धर्मसागरजी कृत ईयापथिकी " षत्रिशिंका" पृ.सं. ४० में आगमोदय समिति द्वारा सूरत से मूल कृति प्रकाशित हुई है । अनुवाद भी किया गया है। जैसा कि कृति के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें कुछ विशिष्ट प्रकार के नियमों का संग्रह होना चाहिए । पुनः आचार्यश्री ने स्वयं इसके महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा है कि शास्त्र सम्मत शुद्ध आचरण का पालन करने के लिये मार्गदर्शन ही इस ग्रन्थ की महत्त्वपूर्ण शिक्षा है । तदुपरान्त " वसति वसहि" का मत्त्व स्थापित किया है । जो समाज के लिए अयोग्य है उस तरफ से दृष्टि ही दूर कर लेनी चाहिए । अशास्त्रीय तथा उन्मार्ग में ले जाने वाली समस्त प्रवृत्तियों का त्याग होना चाहिए। भले ही उपचार से भक्ति का साधन प्रतीत होती हों, किन्तु जो अन्ततः पतित करनेवाली हैं, वे प्रवृत्तियाँ त्याज्य ही हैं। इस प्रकार इस मार्ग में जो साधु एवं साध्वी तथा श्रावक, श्राविकाओं के लिए हर तरह से उपयोगी एवं पथप्रदर्शक है उन्हें ही इसमें ग्रहण किया गया । पुनः विषय वस्तु के निरूपण के द्वारा इसका पूर्ण स्पष्टीकरण किया जायगा । जो निम्न प्रकार होगा। जिन चैत्यों में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। क्योंकि निम्न क्रियाएँ उत्सूत्र हैं । जिन्हें आचार्यश्री ने वर्जित माना है । एयंमि हुस्सुत्तं पुण जुवइपवेसो निसाइ चेइहरे । रयणीए जिणपइड्डा पहाणं नेवेज्जदाणं च ॥ ४ ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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