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________________ १४६ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान गाथा ६६ में द्विदल की चर्चा चली थी। आगे फिर प्रश्न उठा कि सांगरी और राई को द्विदल नहीं मानते, तो उनको द्विदल मानना या नहीं ? आचार्यश्री कहते है कि राई भी तिल-सरसों के जैसे तेल छोड़ती है इसलिये गोरस में राई को द्विदल नहीं मानते, लेकिन चवले और चने द्विदल हैं। वैसे ही सांगरी भी द्विदल ही है, सांगरी के बीजों से तेल नहीं निकलता अतः सांगरी द्विदल है, राई द्विदल नहीं है। इसी प्रकार कडुक ग्वार आदि भी द्विदल हैं उसे कच्चे दूध, दही, और छाछ के साथ नहीं खाना चाहिये । (१३६-१४०) आचार्यश्री ने द्विदल पर बहुत ही जोर दिया है। साथ ही बाईस अभक्ष्य विषय पर भी प्रकाश डालते हैं। अनंत उपकारी, करुणा के सागर आचार्यश्री जिनदत्तसूरि गाथा १४१-१४२ में बाईस अभक्ष्य के बारें में बताते है कि श्रावक को इन बाईस ' पदार्थो का जीवन पर्यन्त सेवन नहीं करना चाहिये । आचार्यश्री ने मनुष्य के हित के लिए बाईस अभक्ष्य जो जैनदर्शन में सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषय है उसका भी विवेचन किया है। अंतिम श्लोक में ग्रंथकार उपसंहार करते हुए अपना परिचय देते हैं : इय कइवय-संसयपय-पण्हुत्त-पयरणं-समासेणं । भणियं जुगपवरागम जिणवल्लभसूरि-सिसेण ॥१५० ॥ इस प्रकार कई संशयग्रस्त प्रश्नों के उत्तररूप इस प्रकरण को संक्षिप्त रूप से युगप्रधान परमगीतार्थ श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज के शिष्य (श्री जिनदत्तसूरिजी) ने फरमाया। संदेह दोलावली ग्रंथ के अन्तर्गत सुंदर प्रश्नों का समाधान आचार्यश्री ने गुरुगम और आगम सम्मत होकर किया हैं। इस ग्रंथ में धर्म अधर्म का स्वरूप, पर्वतिथि को पौषध, तप, शिथिलाचारियों को वंदनादि का निषेध, आलोचना तप आदि का निरूपण किया गया है। जो भी भव्यजीव आचार्यश्री के बताये मार्ग का अनुसरण करेगा, वह शाश्वत सिद्धि को प्राप्त करेगा। ८१. देखे- चैत्यवंदन कुलक में बावीस अभक्ष्य के विषय में प्रकरण ४ ब प्राकृत कृतियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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