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________________ १४२ ब्रह्मचर्यव्रत पालन और अविभूषा - अर्थात् श्रृंगार त्याग करें । ७४ तथा पन्द्रह कर्मादानों का, विकथा, उपहास, कलह, प्रमाद, भोगों की अधिकता का त्याग अधिक नींद त्याग, निन्दा और १८ पापस्थानों का त्याग, शुद्ध धर्म क्रिया में प्रमाद का सेवन न करें । आर्त और रौद्र ध्यान का त्याग करें । इस प्रकार आलोचना करनेवाला हमेशा स्वाध्याय करें और पाँच आचारों का पालन करें। आलोचना करनेवाला जघन्य से त्रिकाल चैत्यवंदन, मध्यम से ५ बार चैत्यवंदन और उत्कृष्ट से सात बार चैत्यवंदन करें । ७५ (८२ से ८७) आचार्यश्री अब आचार और उसके भेद बताते हैं : श्रावक के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य- ये पाँच पकार का आचार बताया है, अब पंचाचार का स्वरूप बताते है: ज्ञान में प्रवृत्ति ज्ञानाचार, श्रद्धा बढाने की प्रवृत्ति दर्शनाचार, सदाचार में प्रवृत्ति चारित्राचार, तपस्या में प्रवृत्ति तपाचार और शासन सेवा में प्रवृत्ति वीर्याचार - इस प्रकार पाँच आचार का स्वरूप ग्रंथकार ने बताया हैं 1 अब आचार के भेद उनकी संख्या बताते हैं युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार प्रत्येक आठ-आठ भेदवाला होता है । तपाचार के बारह भेद हैं। कुल मिलाके छत्तीस भेद होते | वीर्याचार के उपरोक्त छत्तीस भेद होते हैं । (९२-९३) उपरोक्त कुल छत्तीस भेद पंचाचार के बताये है। पाँच आचार का महत्वपूर्ण विवेचन किया गया है । आचार में प्रथम ज्ञानाचार: ज्ञानाचार अर्थात् ज्ञान का सार । ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय और केवल ये पाँच भेद हैं। और ज्ञानाचार के काल, विनय, बहुमान आदि आठ भेद बताये हैं । ७४. ७५. देखे - प्रवचन सारोद्धार - भाग-१, गृहस्थप्रतिक्रमण द्वार -६, गाथा - ६७-६८, पृष्ठ-७५. कर्मादान का अर्थ:-श्रावक पन्द्रह प्रकार के निषिद्ध व्यवसायों को जानकर सर्वथा त्याग करता है । चैत्यवंदन का विशेष वर्णन देखे, चैत्यवंदनकुलक, प्रकरण ४, ब प्राकृत कृतियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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