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________________ १४१ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान उत्तर-ग्रंथकार कहते है कि गरम किये हुए दूध, दही, छाछ के साथ दाल आदि डालने से विराधनारूप दोष नहीं होता। लेकिन कच्चे गोरस में डालने से जीव-समूर्च्छिम सूक्ष्म त्रस-जीव पैदा होते हैं । (६६) द्विदल-जिसमें दो दल हो वैसा अनाज द्विदल कहलाता है। जिसके पिसने से तेल नहीं निकलता उसे द्विदल कहते हैं। द्विदल अनाज को कच्चे दही, छाछ के साथ मिलाने से बेइन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है। फेर उसका भक्षण करने से हिंसा का दोष लगता है। अगर दूध, दही, छाछ को गरम करके अनाज में डाले तो दोष नहीं लगता। जैसे कि गोबर के कंड़े को धूप में सुका देते है तो कोई जीव उसमें नहीं रहता है। लेकिन उस पर वर्षा गिर जाय तो एकाएक दूसरे दिन उसके अंदर सैकड़ों जीव दिखेंगे । ऐसा क्यों, इसका मतलब यह हुआ कि गोबर के कंडे में वर्षा के पानी का संयोग हुआ, इससे जीवोत्पत्ति हुई। इसी प्रकार द्विदल अनाज में कच्चे दही छाछ आदि का संयोग होने से त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है। इसलिए द्विदल का उपयोग कच्चे दही आदि के साथ न करें, गरम करके खाद्य सामग्री में उपयोग में लेना चाहिये। प्रश्नः- आलोचना तप कैसे करें, और उसकी क्या विधि है ? उत्तर:- उसे आचार्यश्री बताते हैं : जिस देश में सद्गुरुओं का समागम नहीं होता है वहाँ के निवासी स्थापनाचार्यजी के सामने आलोचनाविधि कर सकते हैं। ___ आलोचनाविधि करने के लिये सर्वप्रथम पंच परमेष्टि नवकार मंत्र पढ़कर विधिपूर्वक स्थापनाचार्यजी को स्थापन करें। बाद में खमासमणा देकर मुहपत्ति पडिलेहण का आदेश ले तथा मुहपत्ति पडिलेहण के बाद द्वादशव्रत वांदणा दो बार देवें । तत्पश्चात् आलोचना तप करें। उक्त विधि आलोचना तप की, और स्वाध्याय की बतायी गयी है। (७६-८०) प्रश्नः- उक्त रीति से तप और स्वाध्याय दोनो करने में समर्थ श्रावक को तप करना चाहिये या स्वाध्याय क्या करना चाहिये ? उत्तर :- ग्रंथकार कहते है कि: श्रावक आलोचनानिमित्त उपवास करें। जो श्रावक उपवास तप में अशक्त हो वही स्वाध्याय करें । आलोचना तप करते समय- प्रासुक आहार, सचित्त का त्याग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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