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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान दर्शनाचार : आचार का दूसरा भेद दर्शनाचार है। जिसका अर्थ है सम्यक्त्वविषयक आचरण । सम्यग्दर्शन का अर्थ है सत्य के प्रति श्रद्धा दृढ निष्ठा । दर्शनाचार के निःशंकित, निष्कांक्षित आदि आठ भेद हैं । चारित्राचार: चारित्राचार का अर्थ है पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप आचरण जो सम्यक्त्व चारित्र से उत्पादन और रक्षण का साधनरूप है। तपाचार : जैनदर्शन के अनुसार उपवास या कायक्लेश ही तप नहीं । तप के दो भेद बताये है:- छ बाह्य और छः आभ्यन्तर । इन बारह प्रकार के तप से जीवन का उत्थान होता है। वीर्याचार : ज्ञान आदि विषय में शक्ति का अंगोपन तथा अनतिक्रम वीर्याचार है । इस प्रकार ज्ञान, श्रद्धा, तप, सदाचार, सत्कर्म ये सभी आचार के भेद माने गये है । भगवान महावीर ने ज्ञान, श्रद्धा, क्रिया, तप और आत्मशक्ति को आचार की संज्ञा दी है। ७६ पंचाचार का स्वरूप संक्षिप्त में इस प्रकार का बताया गया है। पंचाचार का विशेष वर्णन प्रवचनसारोद्धार में देखें । अब आगे प्रश्न यह उठता है कि आलोचना-तप किस तरह होता है, उसकी क्या विधि है ? ग्रंथाकार आचार्यश्री कहते है कि आलोचना तप में अगर एकाशन करना हो तो 'एक जगह बैठकर भोजन करें । पश्चात् त्रिविध आहार का त्याग करना चाहिये। बाद में तिविहार होता है । (यानि कि केवल गरम पानी खुला रहता है।) अब निविय की विधि बताते है: ७६. ७७. १४३ Jain Education International 65 जैना आचार - देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृष्ठ- १०२-१०३ पंचाचार विशेष वर्णन के लिये देखे:- श्री नेमिचन्द्रसूरि विरचित प्रवचनसारोद्धार-भाग१, गुर्जरभाषान्तर, पं. हिरालाल हंसराज, - गृहस्थ प्रतिक्रमण द्वार ६, पृष्ठ ७७ से ८० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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