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________________ ८९ युगप्रधान आ. जिनदतसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान प्रवाह के अनुसार नहीं चलनेवाले को मुनि ने बेल की तरह बाहर निकाला है । क्योंकि जो सद्गुरु होते है वह मेघ के सदृश है, जब वे विचरण करते है तब सम्यक् वाणी (उपदेश)की वर्षा करके, धर्मरूपी धान्य की उत्पत्ति करनेवाले होते हैं। ऐसे मुनि जगत में प्रसिद्धि को प्राप हुए हैं, तो ऐसे मुनियों को समुद्र से उपमित करना अयोग्य है । (१२०-१२६) मुनियों की तुलना चन्द्र से नहीं की जा सकती- सूर्य से की जा सकती है : भव्वजणेण जग्णियमवग्गियं दुट्ठ-सावय-गणेण। जड्डमवि खंडियं मंडियं य महिमंडलं सयलं ॥ १३०॥ अत्थमइ सकलंको सया ससंको वि दंसिय-पओसो । दोसोदए पत्तपहो तेण समो सो कहं हुज्जा ।। १३१ ॥ जिन आचार्यों ने (मुनि समुदायने)भव्यजनों को जाग्रत किया है, और दुष्ट श्रावक समुदाय को अवग्रहित उपेक्षित किया है अर्थात् अज्ञानियों के अज्ञानरूपी अंधकार को विनष्ट किया है और सम्पूर्ण जगतीतल को सुशोभित किया है ऐसे आचार्य की तुलना सूर्य से की जा सकती है परन्तु चन्द्र से नहीं। क्योंकिचन्द्र हमेशा उदित और अस्त होता रहता है।उदित होने पर ही प्रकाशवान होता है। प्रकाशित होने पर भी मंगलांछन नामक कलंक से कलंकित होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आचार्यो की तुलना यदि कोई चन्द्र से करना चाहे तो वह पूर्णतया असिद्ध है। क्योंकि मुनियों ने (आचार्यों ने)समाज के अज्ञानान्धकार से कुंठित बुद्धि वाले लोगों के अन्तर में ज्ञानरूपी प्रकाश को पूर्णरूपेण प्रकाशित कर उनके हृदय को ज्ञानयुक्त बनाया है। जिस प्रकार सूर्य के उदित होने पर संसार के कोने-कोने में प्रकाश का साम्राज्य छा जाता है, अन्धकार नष्ट हो जाता है, जन-जन में नया तेज स्फूर्ति एवं कर्मभावना जाग्रत हो जाती है- ठीक उसी प्रकार आचार्यों के प्रभाव से मूढ़ से मूढ़ लोग भी ज्ञानवान बन जाते हैं । जबकि चन्द्र तो स्वयं कलंकित है। चन्द्र में एक ही नहीं अनेक दोष हैं। वह कभी घटता है कभी बढ़ता है। कभी राहु आदि ग्रहों से ग्रसित होता है। कभी उसे प्रदोष होता है। इस प्रकार चन्द्र की चाँदनी शीतल तो अवश्य होती है परन्तु एक गुण के साथ अनेक अवगुण लगे हुए हैं। जबकि मुनियों में अवगुणों का नामोनिशान भी नहीं है। तब भला उनकी तुलना चन्द्र से करना योग्य होगा क्या? नहीं, कदापि नहीं । मुनियों की तुलना ज्योतिपुंज मारीचि मालित सूर्य से अवश्य की जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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