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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान मुनि की तुलना विष्णु से की गयी है : संजणियविही संपत्तगुरुसिरी जो सया विसेसपयं । विण्हु व्व किवाणकरो सुरपणओ धम्मचक्कधरो॥ १३२॥ प्रस्तुत गाथा में मुनियों की तुलना भगवान विष्णु से करते हुए कहते हैं किजिस प्रकार विष्णु ने ब्रह्मा को उत्पन्न किया, मुनियों ने विधिमार्ग उत्पन्न किया, विष्णु ने लक्ष्मी को प्राप्त किया, तो मुनियों ने चारित्रलक्ष्मी को प्राप्त किया। विष्णु ने हमेशा शेषनाग को अपना पद बनाया है जबकि मुनियों ने अतिशयों को अपना पद बनाया है। विष्णु खड्गहस्त है जबकि मुनि लोग दया और जिनाज्ञा का पालन करनेवाले हैं। विष्णु देवपूजित हैं, जबकि मुनि देव-देवियों से पूजित हैं । विष्णु चक्रधारी हैं जबकि नुनि धर्म के चक्र को धारण करनेवाले हैं। इस प्रकार मुनियों की तुलना के लिए ग्रन्थकार ने जो तर्क उपस्थित किये हैं वे सभी अपने-अपने स्थान पर अत्यन्त सचोट एवं अपूर्व सिद्ध है। इसलिए भगवान विष्णु के समान मुनियों को बताना उपयुक्त एवं तर्कसंगत है। इसलिए विष्णु एवं मुनियों की तुलना एक अपूर्व एवं सम्पूर्ण तुलना है। अतः मुनि चन्द्र नहीं सूर्य सदृश एवं भगवान विष्णु के समान है। मुनि को शिव की उपमा नहीं दे सकते : मुनियों की उपमा भगवान शिव से नहीं की जा सकती है ।क्योंकि वे तो अर्धांग गौरी अर्थात् पार्वती को समर्पित कर देते है परन्तु मुनि तो इन विषयों से हमेशा दूर ही रहते है। इस प्रकार शिव भी मुनियों की उपमा में निम्न कोटि के हैं। पुनः मुनियों एवं आचार्यों की उपमा एवं तुलना के सम्बन्ध में आचार्य श्री दादासाहब का कहना है कि मुनि के लिए उपमा देना कवि सामर्थ्य के बाहर है। यहाँ तक कि- आचार्यश्री मुनियों के लिए कहते हैं कि जिस प्रकार हस्ताञ्जलि से समुद्र का माप भले हो जाय, पैरों के द्वारा आकाश का उल्लंघन भले हो जाय, परन्तु इन मुनियों के गुणों एव चरित्रों को उपमा से कभी भी उपमित नहीं किया जा सकता है। अतएव मुनियों को उपमा देना कवि के सामर्थ्य के बाहर है। शुद्ध वस्तु के साथ जिस प्रकार अशुद्ध वस्तु की तुलना करके उसकी शुद्धता पर मात्र लांछन ही लगाया जा सकता है। बल्कि शोभा वृद्धि नहीं हो सकती है । अतएव शुद्ध चरित्रवान मुनियों की उपमा के लिए उपमान नहिवत् है । (१३६-१४२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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