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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान संसार के मायाजाल के चक्कर से छुटकारा प्राप्त करके भगवान के बताए हुए सुन्दर मार्ग पर चलने का यदि कोई रास्ता है तो वह है सद्गुरु का उपदेश । वही उपदेशरूपी औषध ही इन कार्यों को पूर्ण करने में समर्थ है। (११६) ग्रंथकार को यहाँ पर मुनि धर्म की चर्चा करने का अवसर मिल गया है। मुनि-धर्म की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि : पडिसोएण पयट्टा चत्ता अणुसोअगामिणीचत्ता। जणजत्ताए मुक्का मय-मच्छर-मोहओ चुक्का ॥ ११८ !! सुद्धं सिद्धतकहं कहति बीहंति नो परेहितो। वयणं वयंति जत्तो निव्वुइवयणं धुवं होइ ।। ११९ ।। सच्चे मुनि निस्तारक मार्ग पर चलनेवाले होते हैं, लोक व्यवहार से रहित रहते हैं, मद, ईर्ष्या तथा मोह से अलग रहते हैं, ये मुनि सिद्धान्त की बात निडरता से कहते हैं। ऐसे मुनि के वचनों में निश्चय ही मोक्ष रहता है। उपरोक्त मुनिमार्ग के विपरीत व्यवहार करनेवाले, मुनिवेश धारण करने पर भी पूजनीय नहीं होते हैं। उनका दर्शन भी जीवों के लिए मिथ्यात्व उत्पन्न करता है। (११८-११९) मुनियों को बादलों से भी उपमित नहीं किया गया है। - मुनिजनों को बादल से उपमित नहीं किया जा सकता है, क्योकि बादल तो अपने शुद्ध जल से सर्वत्र धनधान्य की समृद्धि करता है, समस्त भूतल को जल से सिंचित करके निर्मल बना देता है, उसी प्रकार सद्गुरु भी अपने उपदेशरूप ज्ञान बादलों से लोगों के दिलों दिमाग को पूर्णरूपेण परिशुद्ध करते हैं। लेकिन बादलों का समूह तो तूफान एवं आंधियों के द्वारा विचलित किया जाता है, जबकि सद्गुरुओं को कोई भी तूफान उनके मार्ग से नहीं हटा सकता । सद्गुरु अपने ज्ञानगंगारूपी उपदेश की वर्षा से चारो चरफ ज्ञानगंगा के प्रवाह को फैलाकर समस्त भूतल एवं संसारी जीवों को भी पवित्र बना चुके हैं। इसलिए सद्गुरुओं की तुलना बादलों से नहीं की जा सकती क्योंकि बादल तो निम्न कोटी के हैं। मुनि को समुद्र से भी उपमित नहीं किया है : जो मुनि दूसरों की सहायता के बिना विधिमार्ग को अपनाते हैं , जो दूसरे आचार्यों को दृष्टिगोचर नहीं होता है, किंतु जैन मत के ज्ञाता, अनेक जनप्रवाह रूप नदी के प्रवाह में परिवर्तित संकट में पड़े हुए विशुद्ध धर्मभार को धारण करनेवाले, लौकिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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