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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ८७ ____ जहाँ पर व्रती लोग निवास करते हैं वहाँ अर्थात् चैत्यों में गीतों का होना, वाद्यों का बजाया जाना, रमणियों के वासनायुक्त दृष्य तथा इससे सम्बन्धित जो अलंकारिक बाते हैं वे सभी विधि चैत्यों में उपहासस्वरूप हैं। इसलिए उन्हें वर्जित किया गया है। क्योंकि उक्त बातों के होने से भगवन्त की आज्ञा का उल्लंघन होता है। अतएव निषिद्ध है । गीत, वाद्य, नृत्य रात्रि में होने से जिनेश्वर के दर्शन की अपेक्षा श्रृंगारिक वृत्तियों में मन अनुरक्त हो जाता है। मन की एकाग्रता भंग हो जाती है। गाथा (१०७-११२) जिन्चैत्यों में मुनि द्वारा होती आशातनाओं का वर्णन : साहू सयणासणभोयणाई आसायणं च कुणमाणो। देवह रएण लिप्पइ देवहरे जामिह निवसंतो॥११३ ॥ तंबोलो तं बोलइ जिण-वसहि ट्ठिएण जेण सो खद्धो। खुद्धे भवदुक्खजले तरइ विणा नेय सुगुरु-तरिं ।। ११४ ।। उपरोक्त पंक्तियों में ग्रंथकार ने यह बताने की कोशिश की है कि जो मुनि जिन मन्दिर में रहकर शयन आसन और भोजनादि करते हैं, देवद्रव्य का उपयोग करते हैं, तांबूलादि का भक्षण करते हैं , ये सब कार्य मुनियों के लिए अनुपयुक्त है। ऐसे मुनि श्रावक अकल्याण का कारण बनते हैं और उन्नति के वजाय अवनति के मार्ग पर उनका गमन होने लगता है। उत्थान की अपेक्षा पतन का पलड़ा भारी हो जाता है। इन्हीं आशातनाओं के कारण मुनि दुः खरूपी संसार में रहकर अनन्त पापों में डूब जाता है। (११३-११४) सद्गुरु का वर्णन करते हुए कहते हैं कि संदेहकारि तिमिरेण तरलियं जेसिं दंसणं नेय। निव्वुइ-पहं पलोयइ गुरु-विज्जुवएस-ओसहओ॥११६|| इस संसार सागर के व्यवहाररूपी शंकाओं से जिनकी दृष्टि व्याकुल बनी है, जिसे मोक्ष मार्ग दिखता नहीं है, अगर उनको सद्गुरुरूपी वैद्य मिल जावे और उपदेशरूपी औषध मिल जावे अर्थात् जो भी सद्गुरु के उपदेश सुनकर उसका आचरण करेंगे उसका मोक्षमार्ग खुला हुआ समझो। __ क्योंकि संसार के मायाजाल के चक्कर में पड़ा हुआ मनुष्य कभी भी उससे छुटकारा नहीं पा सकता है। ऐसी अवस्था में मात्र सद्गुरु का उपदेश ही ऐसा है जिसे सुनकर जीवन में उसका आचरण करके मोक्षमार्ग को स्वच्छ बनाया जा सकता है । सद्गुरु के महत्व का वर्णन करते हुए कहा जा सकता है कि अज्ञान को दूर करने एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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