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________________ देखने को मिलेगा। आपके जीवन में साधना, संयम की आराधना, जिनशासनकी प्रभावना प्रभु के प्रति समर्पणभाव साक्षात् दृष्टिगोचर होता है / रोम-रोम में जिनशासन समाया हुआ हैं। जिनशासन का अनवरत स्रोत आपके अंतर में तरंगित होता रहता है। इन सभी के मध्य आपके हृदय में एक अपूर्व नाद गुंजित होता हैं, वह है अपने गुरु के प्रति अपूर्व श्रद्धा एवं समर्पण / गुरु-विरह में आज भी आपश्री के नयनों में अविरत अश्रु प्रवाह बहता रहता हैं। आज भी हम आपकी अपने गुरु के प्रति निष्ठा, भक्ति हर मोड़ पर अनुभव करते हैं। जगहजगह पर अपने गुरु की मूर्ति प्रतिष्ठापित करवा कर गुरुभक्ति का साक्षात् परिचय दे रहे हैं। गुरुवर्याश्री जी के स्वर्गारोहण पश्चात् आपश्री ने प्रधानपद विभूषित प.पू.श्री अविचलश्री जी म.सा.के आदेशानुसार तेरह चातुर्मास सम्पन्न किये। संयम लेने के पश्चात् हिन्दी साहित्य रत्न, संस्कृत प्राकृत, जैन आगम साहित्य का अध्ययन प्राप्त किया। इसके उपरान्त अमरावती, इन्दौर, मन्दोर में शतावधान का प्रयोग हजारों की जनमेदमी में अपनी गुरुवर्याश्री जी के सान्निध्य में किया। शतावधान होने का गौरव भी आपश्री ने प्राप्त किया है। शतावधान यानि एक से सौ तक प्रश्न एक साथ अलग-अलग व्यक्तिओं द्वारा पूछे जाना! पश्चात् क्रमानुसार एक-एक प्रश्न का उत्तर फरमाना! विचरण क्षेत्र, राजस्थान, देहली, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्णाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, साउथ, कुलपाक, महाराष्ट्र और सौराष्ट्र रहा है / देशभर में विहार कर जैन धर्म और दर्शन का आस्वाद कराया है अपने श्रद्धालु भक्तों को / आध्यत्म की शिक्षा देना आपका मूल मंत्र रहा है। जहां जाते हैं वहां आध्यात्मिक शिक्षण शिविर आयोजित करवाते है। युवा पीढ़ी को Jain Education Internation@rivate & Personal Usewowy.jainelibrary.org
SR No.002767
Book TitleManohar Dipshikha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusmitashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1997
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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