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________________ ३३६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४४९वैराग्य प्राप्तः। नरकादिगतिषु दुःखच्छेदनशूलारोपणकुम्भीपाकपचनक्षुधातृषावेदनोद्भवेष्टानिष्ट वियोगसंयोगमानसिकादिजं दुःखं वर्तते । शरीरं विनाशि सप्तधातुमयमिति । भोगः रोगगृहं विनाशकारीति चिन्त तपःकुशलः अभ्यन्तरेषु तपस्सु तपश्चरणेषु प्रायश्चित्तादिषु कुशलः निपुणः निष्णातः दक्षः चतुरः विवेकी । पुनः कीदृक्षः। उपशमशील: क्रोधमानमायालोभरागद्वेषादीनामुपशमस्वभावः अनुदयस्वरूपः । पुनः कीदृक् । महाशान्तः महान् पूज्यः स चासौ शान्तः क्षमादिपरिणतः, यः एवंभूतः क्षपकः स श्मशाने निवसति पितृवने तिष्ठति । क्वक्व वसति संतिष्ठते । बनगहने महावने गहनारण्ये अन्यत्रापि उद्धसगृहगिरिगुफाकन्दरकोटरादिके । कथंभूते । विविक्ते ध्यानाध्ययनविघ्नकरस्त्रीपशुपाण्डकादिवर्जिते । पुनः कथंभूते स्थाने । महाभीमे महारौद्रे अतिभयानके एवंभूते वासे वसति यः तस्य विविक्तशयनासनतपोविधानं स्यात् । तथा श्रीभगवत्याराधनायां विविक्तशयनासननिरूपणा कथ्यते । "जहिं ण विसोत्तिय अस्थि दु सहरसरूवगंधफासेहिं । सज्झायझाणवाघादो वा वसधी विवित्ता सा ॥" यस्यां वस म विद्यते अशुभपरिणामः । कैः कृत्वा । शब्दरसरूपगन्धस्पर्शः करणभूतैः मनोहः अमनोज्ञैर्वा सा विविक्ता वसतिः । खाध्यायध्यानयोाघातो वा नास्ति सा विविक्ता भवति। “वियडाए अवियडाए समविसमाए बहिं च अंतो वा। इत्थिणउंसयपसुवज्जिदाए सीदाए उसिणाए ॥" विघटायाम् उद्घाटितद्वारायाम् अविघटितायाम् अनुद्घाटितद्वारायां वा समभूमिसमन्वितायो वा बहिर्भागे अभ्यन्तरे वा स्त्रीभिनपुंसकैः पशुभिश्च वर्जितायां वसतौ शीतायाम् उष्णायाम् । जो बाह्य भागमें हो अथवा अभ्यन्तर भागमें हो, जहाँ स्त्री नपुंसक और पशु न हों, जो ठंडी हो, अथवा गर्म हो वह वसतिका एकान्त वसतिका है ।" जो वसतिका उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित है वह एकान्त वसतिका मुनिके योग्य है । उद्गम आदि दोष इस प्रकार हैं-वृक्ष काटना, काटकर लाना, ईटे पकाना, जमीन खोदना, पत्थर बाल वगैरहसे गड्डा भरना, जमीन कूटना, कीचड करना, खम्भे खड़े करना, अग्निसे लोहेको तपाकर पीटना, आरासे लकड़ी चीरना, विसोलेसे छीलना, कुल्हाड़ीसे काटना, इत्यादि कार्योंसे छ: कायके जीवोंको बाधा देकर जो वसतिका खयं बनाई हो अथवा दूसरोंसे बनवाई हो वह वसतिका अधःकर्मके दोषसे युक्त होती है। जितने दीन, अनाथ, कृपण अथवा साधु आयेंगे, अथवा निम्रन्थ मुनि आयेंगे अथवा अन्य तापसी आयेंगे उन सबके लिये यह वसतिका होगी, इस उद्देश्यसे बनाई गई वसतिका उद्देशिक दोषसे युक्त होती है । अपने लिये घर बनवाते समय 'यह कोठरी साधुओं के लिये होगी' ऐसा मन में विचारकर बनवाई गई वसतिका अब्भोब्भव दोषसे युक्त होती है । अपने घरके लिये लायेगये बहुत काष्ठादिमें श्रमणोंके लिये लाये हुए काष्ठादि मिलाकर बनवाई गई वसतिका पूतिक दोषसे युक्त होती है । अन्य साधु अथवा गृहस्थोंके लिये घर बनवाना आरम्भ करने पर पीछे साधुओंके उद्देश्यसे ही काष्ठ आदिका मिश्रण करके बनवाई गई वसतिका मिश्र दोषसे दूषित होती है । अपने लिये बनवाये हुए घर को पीछे संयतोंके लिये दे देनेसे वह घर स्थापित दोषसे दूषित होता है । मुनि इतने दिनोंमें आयेंगे जिस दिन वे आयेंगे उस दिन सब घरको लीप पोतकर खच्छ करेंगे ऐसा मनमें संकल्प करके जिस दिन मुनिका आगमन हो उसी दिन वसतिकाको साफ करना पाहुडिग दोष है । मुनिके आगमनसे पहले संस्कारित वसतिका प्रादुष्कृत दोषसे दूषित होती है । जिस घरमें बहुत अंधेरा हो मुनियोंके लिये प्रकाश लानेके निमित्तसे उसकी दीवारमें छेद करना, लकड़ीका पटिया हटाना, उसमें दीपक जलाना, यह पादुकार दोष है। खरीदे हुए घरके दो भेद हैं-द्रव्यक्रीत और भावक्रीत । गाय बैल वगैरह सचित्त पदार्थ देकर अथवा गुड़ खांड वगैरह अचित्त पदार्थ देकर खरीदा हुआ मकान द्रव्य१२. पात वा विषमभूमिसमन्वितायां बहि° Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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