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________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा ३३७ "उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए दु । वसदि असंसत्ताए णिप्पाहुडियाए सेजाए ॥” उद्गमोत्पादनेषणादोषरहितायां वसत्याम् । तत्रोद्गमदोषो निरूप्यते । वृक्षच्छेदनतदानयनम् इष्टिकापाकः भूमिखननं पाषाणसिकतादिभिः पूरणं धरायाः कुट्टनं कर्दमकरणं कीलानां करणमग्निना लोहतापनं कृत्वा प्रताख्य कचैः काष्ठपाटनं परशुभिः छेदनमित्येवमादिव्यापारेण षण्णां जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता अन्येन वा वसतिः आधाकर्मशब्देनोच्यते । १। यावन्तो दीनानाथकृपणा आगच्छन्ति लिगिनो वा तेषामियमित्युद्दिश्य कृता पाषण्डिनामेवेति वा निर्ग्रन्थानामेवेति सा उद्देसिग-वसतिभण्यते । २ । अपवरकं संयतानां भवत्विति विकृतं अज्झोवज्झं । ३। आत्मनो गृहार्थमानीतैः काष्ठादिभिः सह बहुभिः श्रमणार्थमानीयाल्पेन मिश्रिता यत्र गृहे तत्पूतिकमिति । ४ । पाषण्डिनां गृहस्थानां वा क्रियमाणे गृहे पश्चात् संयतान् उद्दिश्य काष्ठादिमिश्रेण निष्पादितं वेश्म मिश्रम् । ५ । खार्थमेव कृतं संयतार्थमिति स्थापितं ठविदं इत्युच्यते । ६ । संयतः स च यावद्भिर्दिनैरागमिष्यति तत्प्रवेशदिने गृहसंस्कारं सकलं करिष्यामः इति चेतसि कृत्वा यत्संस्कारितं वेश्म तत् पाहुडिगं, तदागमानुरोधेन गृहसंस्कारकालापहासं कृत्वा वा संस्कारिता वसतिः । ७। यद्गृहमन्धकारबहुलं तत्र बहुलप्रकाशसंपादनाय यतीनां छिद्रीकृतकुड्यम् अपाकृतफलकं सुविन्यस्तप्रदीपकं वा तत्प्रादुष्कारशब्देन भण्यते । ८ । द्रव्यकीतं भावक्रीतमिति द्विविधं कीतं वेश्म सचित्तं गोबलीवादिकं दत्त्वा संयतार्थ क्रीतम् अचित्तं वा घृतगुडखण्डादिकं दत्त्वा कीतं द्रव्यकीतं, विद्यामत्रादिदानेन वा क्रीतं भावक्रीतम् । ९ । अल्पमृणं कृत्वा वृद्धिसहितमवृद्धिकं वा गृहीतं संयतेभ्यः पामिच्छं । १० । मदीये वेश्मनि तिष्ठतु भवान् युष्मदीयं तावदहं यतिभ्यः प्रयच्छति गृहीतं परियदृ । ११ । कुख्याद्यर्थ कुटीरक्कटादिकं स्वार्थ क्रीत है । विद्या मंत्र वगैरह देकर खरीदा हुआ मकान भावक्रीत है। बिना ब्याजपर अथवा व्याजपर थोड़ासा कर्जा करके मुनियोंके लिये खरीदा हुआ मकान पामिच्छ दोषसे दूषित होता है । आप मेरे घरमें रहें और अपना घर मुनियोंके लिये देदें इस प्रकार से लिया हुआ मकान परिवर्त दोषसे दूषित होता है। अपने घरकी दीवारके लिये जो स्तम्भ आदि तैयार किये हों वह संयतोंके लिये लाना अभ्याहृत नामक दोष है । इस दोषके दो भेद हैं-आचरित और अनाचरित । जो सामग्री दूर देशसे अथवा अन्य ग्रामसे लाई गई हो उसको अनाचरित कहते हैं और जो ऐसी नहीं हो उसे आचरित कहते हैं । इंट, मिट्टी, बाड़ा, किवाड़ अथवा पत्थरसे ढका हुआ घर खोलकर मुनियोंके लिये देना उद्भिन्न दोष है । नसैनी वगैरहसे चढ़कर 'आप यहाँ आईये, यह वसतिका आपके लिये है' ऐसा कहकर संयतोंको दूसरी अथवा तीसरी मंजिल रहनेके लिये देना मालारोह नामका दोष है । राजा मंत्री वगैरहका भय दिखाकर दूसरेका मकान वगैरह मुनियोंके लिये दिलाना अछेद्य नामका दोष है । अनिसृष्ट दोषके दो भेद हैं-जिसे देनेका अधिकार नहीं है ऐसे गृहस्वामीके द्वारा जो वसतिका दी जाती है वह अनिसृष्ट दोषसे दूषित है । और जो वसतिका बालक और पराधीन खामीके द्वारा दीजाती है वह भी उक्त दोषसे दूषित है । यह उद्गम दोषोंका निरूपण किया । अब उत्पादन दोषोंका कथन करते हैं । धायके काम पाँच हैं । कोई धाय बालकको स्नान कराती है, कोई उसको आभूषण पहनाती है, कोई उसका मन खेलसे प्रसन्न करती है, कोई उसको भोजन कराती है, और कोई उसको सुलाती है । इन पाँच धात्री कर्मोमेंसे किसी कामका गृहस्थको उपदेश देकर उससे वसतिका प्राप्त करना धात्रीदोष है । अन्य ग्राम, अन्य नगर, देश, देशान्तरके समाचार कह कर प्राप्त की गई वसतिका दूतकर्म दोषसे दूषित है । अंग, वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न, भौम, खप्न और अन्तरिक्ष ये आठ महानिमित्त हैं । इन आठ महानिमित्तोंके द्वारा शुभाशुभ फल बतलाकर प्राप्त की गई वसतिका निमित्त दोषसे दूषित है । अपनी जाति, कुल, ऐश्वर्य, वगैरहका माहात्म्य बत कार्तिके. ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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