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________________ २२९ -४४१] १२. धर्मानुप्रेक्षा जो मण-इंदिय-विजई इह-भव-पर-लोय-सोक्ख-णिरवेक्खो। अप्पाणे विय णिवसई सज्झाय-परायणो होदि ॥ ४४०॥ [छाया-यः मनइन्द्रियविजयी इहभवपरलोकसौख्यनिरपेक्षः । आत्मनि एव निवसति स्वाध्यायपरायणः भवति ॥] स भव्यजनः स्वाध्यायपरायणो भवति । खाध्याये वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षानायधर्मोपदेशलक्षणे पञ्चप्रकारे परायणः तत्परः सावधानः एकत्वं गतः । स कः । यो भव्यजनः आत्मन्येव शुद्धबुद्धचिदानन्दैकरूपशुद्धचिद्रूपामेदरत्नत्रयरूपपरमानन्दे परमात्मनि स्वात्मनि निवसति निवासं करोति तिष्ठति ध्यानेन एकत्वं गच्छति, स्वस्वरूपसुखामृतम् अनुभवति स भव्यः खाध्यायपरायणः । कीदृविधो भव्यः । मनइन्द्रियविजयी मनः मानसं चित्तम् , इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि तेषां विजयी जेता वशीकारकः इन्द्रियमनोव्यापारविरहितः । पुनः कथंभूतः । यो भव्यः इहभवपरलोकसौख्यनिरपेक्षः, इहभवभुज्यमानायुष्यजन्म परलोक अग्रे प्राप्यमानखर्गादिभवः द्वन्द्वः तयोः सौख्यानि, शरीरपोषणमृष्टाहारग्रहणयुवतिसेवनमानपूजालाभादीनि विमानाप्सरोदेवसेवादीनि च तेषु निरपेक्षः निःस्पृहः वाञ्छारहितः । दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानयश:ख्यातिपूजामहत्त्वलाभादिरहित इत्यर्थः ॥४४०॥ कम्माण णिजर8 आहारं परिहरेइ लीलाए । एग-दिणादि-पमाणं तस्स तवं अणसणं होदि ॥४४१॥ [छाया-कर्मणां निजेरार्थम् आहार परिहरति लीलया। एकदिनादिप्रमाणं तस्य तपः अनशनं भवति ॥1 तस्य भव्यस्य पुंसः अनशनं तपो भवति । न विधीयते अशनं भोजनं चतुर्विधाहारं यस्मिन्निति तदनशनम् , अशनपानखाद्यलेह्यादिपरिहरणम् अनशनाख्यं तपः स्यात् । तस्य कस्य । यो भव्यः लीलया अक्लेशेन खशक्त्या आहारं चतुर्विधं भोज्यम् होते हैं । और जो इन्द्रियोंके दास होते हैं वे अपनी शुद्ध बुद्ध आत्मासे कोसों दूर वसते हैं । अतः स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द इन पाँचों विषयोंकी ओर अपनी अपनी उत्सुकता छोड़कर पाँचों इन्द्रियोंका शान्त रहना ही वास्तवमें सच्चा उपवास है और इन्द्रियोंको शान्त करनेके लिये चारों प्रकारके आहारका त्याग करना व्यवहारसे उपवास है। अतः जिन्होंने अपनी इन्द्रियोंको जीतकर वशमें कर लिया है वे मनुष्य भोजन करते हुए मी उपवासी हैं । सारांश यह है कि जितेन्द्रिय मनुष्य सदा उपवासी होते हैं, अतः इन्द्रियोंको जीतनेका प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४३९ ॥ अर्थ-जो मन और इन्द्रियोंको जीतता है, इस भव और परभधके विषयसुखकी अपेक्षा नहीं करता, अपने आत्मस्वरूपमें ही निवास करता है और स्वाध्यायमें तत्पर रहता है । भावार्थ-सच्चा उपवास करने वाला वही है जो मन और इन्द्रियोंको अपने वशमें रखता है, इस लोक और परलोकके भोगोंकी इच्छा नहीं रखता अर्थात् इस लोकमें ख्याति लाभ और मन प्रतिष्ठाकी भावनासे तथा आगामी जन्ममें खर्ग लोककी देवांगनाओंको भोगनेकी अभिलाषासे उपवास नहीं करता, तथा जो शुद्ध चिदानन्द स्वरूप परमात्मामें अथवा खात्मामें रमता है और अच्छे अच्छे शास्त्रोंके अध्ययनमें तत्पर रहता है ॥ ४४० ॥ अर्थ-उक्त प्रकारका जो पुरुष कोंकी निर्जराके लिये एक दिन वगैरहका परिमाण करके लीला मात्रसे आहारका त्याग करता है उसके अनशन नामक तप होता है ॥ भावार्थ-ऊपरकी गाथामें जो विशेषताएं बतलाई हैं विशेषताओंसे युक्त जो महापुरुष कोका एक देशसे क्षय करनेके लिये एक दिन, दो दिन आदिका नियम लेकर बिना किसी कष्टके १ ब सुक्ख । २ ब वि णिवेसर। ३ व एकदिणाइ । ४ ब अणसणं ॥ उववास इत्यादि । कार्तिके. ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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