SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४१४कीलालाय सुराकार भदाय गृहप श्रेयसे वित्तं धर्माध्यक्ष्यायानुक्षत्तारम् । अथैतानष्टौ विरूपानालभतेऽतिदीर्घ चातिहख चातिस्थूलं चातिकृशं चातिशुक्र चातिकृष्णं चातिशुल्वं चातिलोमशं च । अशुद्रा अब्राह्मणास्ते प्राजापत्याः । मागधः पुंश्चली कितवःक्लीबोऽशूद्रा अब्राह्मणास्ते प्राजापत्याः॥ ब्रह्मणे ब्राह्मणमालमेत इन्द्राय क्षत्रियं मरुग्यो वैश्यं तपसे शूद्र तमसे तस्कर आत्मने क्लीबं कामाय पुंश्चलम् अतिक्रुष्टाय मागधम् । गीताय सुतम् आदित्याय स्त्रियं गर्भिणीम् ।" सौत्रामणौ य एवंविधा सुरी पिबति ना तेन सुरा पीता-भवति । सुराश्च तिस्र एव श्रुतौ संमताः, पैष्टी गौडी माधवी चेति। गोसवे ब्राह्मणो गोसवेनेष्टा संवत्सरान्ते मातरमप्यमिलषति । उपेहि मातरमुपेहि स्वसारम् इत्यादि। यज्ञेषु जीववधो धर्मो भवति किमिति क्षेपे इत्येवंप्रकारा या शङ्का तस्या अकरणं निःशङ्का निश्शङ्कितगुणं निस्सन्देहं जानीहि । आदिशब्दात् किं दिगम्बराणां मूलोत्तरगुणप्रतिपालने धर्मः, किं वा तापसानां पञ्चामिधुम्रपानसाधने कन्दमूलपत्रादिभक्षणे धर्मः। तथा जैनाभासाना श्वेतांशुकादीनां सर्वत्र भिक्षाचरणे केवलिना भुक्तिकरणे गृहिणां स्त्रीणामन्यलिङ्गिनां च मुक्तिगमनमित्यत्र किंवा धर्मः, किं वा जिन एव देवः, किं वा ईश्वरब्रह्मविष्णुकपिलसौगतादयो देवाः, किं जिनोक्तसप्ततत्त्वषद्रव्यपञ्चास्तिकायनवपदार्थानां श्रद्धाने धर्मः, किं वा अन्यमतजैनाभासशैवसांख्यसौगतादिकथिततत्त्वानां श्रद्धाने धर्मः, किं जैनशास्त्रोक्तः धर्मः, किं वा परमतशास्त्रोक्तः धर्मः इत्यादिशङ्कायाः अकरणं निःसन्देहः। सूक्ष्मं जिनोक्तं तत्त्वं हेतुभि व हन्यते। जिनदेवजिनधर्मजिनशास्त्रतत्त्वादिषु श्रद्धा रुचिः विश्वासः प्रतीतिः । रागद्वेषक्षुधादिदोषकदम्बकम् अज्ञानम् असत्यवचनकारणं च वीतरागसर्वज्ञाना नास्ति, ततः कारणात् तत्प्रणीते हेयोपादेयतत्त्वे मोक्षमार्गे धर्मे गुरौ शास्त्रे च भव्यैः शङ्का संशयः संदेहो न कर्तव्य इति निःशङ्कितगुणः ॥ ४१४॥ वैदकी ऋचाओंमें लिखा है । सोम देवताके लिये हंसोंका, वायुके लिये बगुलोंका, इन्द्र और अग्निके लिये सारसोंका, सूर्य देवताके लिये जलकारोंका, वरुण देवताके लिये नक्रोंका वध करना चाहिये । छ: ऋतुओंमेंसे वसन्तऋतुके लिये कपिञ्जल पक्षियोंका, ग्रीष्मऋतुके लिये चिरौटा पक्षियोंका, वर्षाऋतुके लिये तीतरोंका, शरदऋतुके लिये बत्तकोंका, हेमन्तऋतुके लिये ककर पक्षियोंका, और शिशिरऋतुके लिये विककर पक्षियोंका वध करना चाहिये । समुद्रके लिये मच्छोंका, मेघके लिये मेंडकोंका, जलोंके लिये मछलियोंका, सूर्यके लिये कुलीषय नामक पशुओंका, वरुणके लिये चकवोंका वध करना चाहिये । तथा लिखा है-सूत्रामणि यज्ञमें जो इस प्रकारकी मदिरा पीता है वह मदिरा पीकर भी मदिरा नहीं पीता । श्रुतिमें तीन प्रकारकी मदिरा ही पीने योग्य कही है-पैष्टी गौडी और माधवी । इत्यादि सुनकर 'क्या जीववधमें धर्म है' इस प्रकारकी शङ्काका भी न होना अर्थात् जीववधको अधर्म ही मानना निःशंकित गुण है। इसी तरह क्या जैनधर्ममें कहे हुए मूलगुण और उत्तर गुणोंका पालन करनेमें धर्म है अथवा तापसोंके पंचाग्नि तप तपने और कन्द मूल फल खानेमें धर्म है ? क्या जिनेन्द्रदेव ही सच्चे देव हैं अथवा ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, कपिल, बुद्ध वगैरह सच्चे देव हैं ? क्या जैन धर्ममें कहे हुए सात तत्त्व, छः द्रव्य, और पाँच अस्तिकाय और नौ पदार्थोके श्रद्धानमें धर्म है, अथवा सांख्य सौगत आदि मतोंमें कहे हुए तत्त्वोंके श्रद्धानमें धर्म है ? इत्यादि सन्देहका न होना निःशंकित गुण है । सारांश यह है कि जिनभगवानके द्वारा प्रतिपादित तत्त्व बहुत गहन है, युक्तियोंसे उसका खण्डन नहीं किया जा सकता। ऐसा जानकर और मानकर जिनदेव, जिनशास्त्र, जिनधर्म और जैन तत्त्वोंमें श्रद्धा, रुचि और प्रतीति होनी चाहिये । क्योंकि मनुष्य राग द्वेष अथवा अज्ञानसे असत्य बोलता है। वीतराग और सर्वज्ञमें ये दोष नहीं होते। अतः उनके द्वारा कहे हुए तत्वोंमें और मोक्षके मार्गमें सन्देह नहीं करना चाहिये । निःसन्देह होकर प्रवृत्ति करनेमें ही कल्याण है ॥४१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy