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________________ २८६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३६५नमोदितं भोज्यं ९ इति नवोत्कर्षप्रकारैः विशुद्ध दोषरहितमित्यर्थः । मनसाऽकृतभोजनमित्यादयः नवप्रकाराः ज्ञातव्याः । अथवा अन्नं पवित्रं सत् १ दातारं २ पात्रं च ३ पवित्रं करोति । दाता शुद्धः सन् १ अन्नं २ पात्रं च ३ शुद्धं करोति । पात्रं शुद्धं सत् १ दातारम् २ अन्नं च ३ शुद्धं करोति इति नवा नूतना कोटिः प्रकर्षः तया विशुद्धम् । पुनः कीदृक्षम् । याचारहितं मह्यम् अन्नं देही हारप्रार्थनार्थ द्वारोद्धाटनशब्दज्ञापनम् इत्यादियानया प्रार्थनया रहितम् । पुनः कीदृक्षम् । योग्यं मकारत्रयरहितं चर्मजलघृततैलरामठादिभिरस्पृष्टं रात्राकृतं चाण्डालनीचलोकमार्जारशुनकादिस्पर्शरहितं यतियोग्य भोज्यम् ॥ ३९॥ जो सावय-वय-सुद्धो अंते आराहणं परं कुणदि । सो अञ्चदम्हि सग्गे इंदो सुर-सेविदो होदि ॥ ३९१॥ [छाया-यः श्रावकव्रतशुद्धः अन्ते आराधनं परं करोति । सः अच्युते खर्गे इन्द्रः सुरसेवितः भवति ॥ यः श्रावकव्रतशुद्धः श्रावकस्य श्राद्धस्य व्रतैः सम्यग्दृष्टिदर्शनिकवतसामायिकप्रोषधोपवाससचित्तविरतरात्रिभुक्तिविरताब्रह्मवाला श्रावक उद्दिष्ट आहारका त्यागी होता है । आहारकी ही तरह अपने उद्देश्यसे बनाई गई वसतिका, आसन, चटाई वगैरहको भी वह खीकार नहीं करता, न वह निमंत्रण स्वीकार करता है। किन्तु मुनिकी तरह श्रावकोंके घर जाकर भिक्षा भोजन करता है । श्रावकोंके घर जाकर भी वह मांगता नहीं कि मुझे भोजन दो, और न आहारके लिये श्रावकोंका दरवाजा खटखटाता है । तथा मुनिके योग्य नव कोटिसे शुद्ध आहारको ही ग्रहण करता है । मन वचन कायके साथ कृत, कारित और अनुमोदनाको मिलानेसे नौ कोटियां अर्थात् नौ प्रकार होते हैं । अर्थात् उद्दिष्ट त्यागी जो भोजन ग्रहण करे वह उसके मनसे कृत न हो, मनसे कारित न हो, मनसे अनुमत न हो, वचनसे कृत न हो, वचनसे कारित न हो, वचनसे अनुमोदित न हो, कायसे कृत न हो, कायसे कारित न हो, कायसे अनुमोदित न हो । इन उत्कृष्ट नौ प्रकारोंसे युक्त विशुद्ध भोजनको ही उद्दिष्ट विरत श्रावक ग्रहण करता है ॥३९०॥ अर्थजो श्रावक व्रतोंसे शुद्ध होकर अन्तमें उत्कृष्ट आराधनाको करता है वह अच्युत स्वर्गमें देवोंसे सेवित इन्द्र होता है ॥ भावार्थ-जो श्रावक सम्यग्दृष्टि, दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त विरत, रात्रिभुक्ति विरत, अब्रह्म विरत, आरम्भ विरत, परिग्रह विरत, अनुमति विरत, और उद्दिष्ट विरत इन बारह व्रतोंसे निर्मल होकर मरणकाल उपस्थित होनेपर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तप इन चार आराधनाओंको करता है वह मरकर अच्युत नामके सोलहवें वर्गमें जाता है, उससे आगे नवग्रैवेयक वगैरहमें नहीं जाता, ऐसा नियम है । तथा वहाँ देवोंसे सेवित इन्द्र होता है । श्रीवसुनन्दि सैद्धान्तिकने उद्दिष्टाहार विरत प्रतिमाका लक्षण इस प्रकार कहा है-"ग्यारहवीं प्रतिमाका धारी उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकारका होता है । एक तो एक वस्त्र रखनेवाला और दूसरा लंगोटी मात्र रखनेवाला ॥ प्रथम उत्कृष्ट श्रावक अपने बाल उस्तरेसे बनवाता है अथवा कैंचीसे कतरवाता है । और सावधानी पूर्वक कोमल उपकरणसे स्थान आदिको साफ करके बैठता है । बैठकर स्वयं अपने हाथरूपी पात्रमें अथवा बरतनमें भोजन करता है । और चारों पर्वोमें नियमसे उपवास करता है । उसके भोजनकी विधि इस प्रकार है-पात्रको धोकर वह चर्याके लिये श्रावकके घर जाता है और आंगनमें खड़ा होकर 'धर्मलाभ' कहकर खयं भिक्षा मांगता है ॥ तथा भोजनके मिलने और न मिलनेमें सम १ व अञ्चयम्मि । २ रूम स ग सेविओ (उ१)। ३ व उद्दिड-विरदो। एवं सावयधम्मो समायत्तोः॥ जो रपणत्तय इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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