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________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा विरतारम्भविरतपरिग्रहविरतानुमतविरतोद्दिष्टाहारविरतव्रतैर्द्वादशप्रमितैः शुद्धः निर्मलः षष्टिदोषरहितः श्राद्धः अन्ते अवसाने जीवितान्ते मरणकाले वा । तथा चोक्तम् । “उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥" आराधनं करोति विदधाति सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसा व्यवहारनियमतः आराधनं करोति विदधाति । कथंभूतम् । परम् उत्कृष्टम् । स श्रावकधर्मशुद्धः पुमान् अच्युतखर्गे इन्द्रो मघवा भवति अच्युतनाम्नि षोडशनाके षोडशस्वर्गे गच्छति । ततः परं नवग्रैवेयकादिषु न याति इति नियमो ज्ञातव्यः । कीदृक् इन्द्रः । सुरसेवितः सुरैः सामानिकादिदेवबन्दैः सेवितः सेव्यः स्यात् । तथा वसुनन्दिसिद्धान्तिनोद्दिष्टाहारविरतिप्रतिमालक्षणं प्रोक्तं च । 'एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो । वत्थेयधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो बिदिओ ॥ १॥ धम्मिल्लाणवणयणं कारदि कत्तरिछुरेण वा पढमो। ठाणादिसु पडिलेहदि मिदोवकरणेण पयडप्पा ॥ २॥ भुंजेदि पाणिपत्तम्मि भायणे वा सयं समुवविठ्ठो। उववासं पुण णियमा चउन्विहं कुणदि पव्वेसु ॥३॥ पक्खालिऊण पत्तं पविसदि चरियाए पंगणे ठिच्चा। भणिदूण धम्मलाभं जायदि भिक्खं सयं चेव ॥ ४ ॥ सिग्घं लाहालाहो अदीणवयणो णियत्तिदूण तदो। अण्णम्हि गिहे बच्चदि दरिसदि मोणेण कार्य वा ॥५॥ जदि अद्धवहे कोई वि भण्णइ एत्थेव भोयणं कुणह । भोत्तूण णिययभिक्खं तथिल्लं भुंजए सेसं ॥६॥ अहण लहइ तो मिक्खं भमिज णियपोट्टपूरणपमाणं । पच्छा एयम्हि गिहे जायज्जो पासुगं सलिलं ॥७॥ जं किं पि पडिदमिक्खं भुंजिजो सोहिदूण जत्तेण । पक्खालिदूण पत्तं गच्छेज्जो गुरुसयासम्मि ॥८॥ जदि एवं ण चएजो काहुँ रिसिगेहणम्मि चरियाए । पविसित्तु एयमिक्खं पवित्तिणियमेण ता कुजा ॥९॥ गंतूण गुरुसमीवं बुद्धि रखकर, भोजन न मिलनेपर दीनमुख न करके वहाँसे शीघ्र निकल आता है, और दूसरे घर जाता है, तथा मौनपूर्वक अपना आशय प्रकट करता है ॥ यदि कोई भोजन करनेकी प्रार्थना करता है तो पहले ली हुई भिक्षाको खाकर शेष भिक्षा उससे लेकर खाता है । यदि कोई मार्गमें भोजन करनेकी प्रार्थना नहीं करता तो अपने पेट भरने लायक भिक्षाकी प्रार्थना करता है और फिर किसी घरसे प्रासुक पानी मांगकर जो कुछ भिक्षामें मिला है उसे सावधानी पूर्वक शोधकर खा लेता है और पात्रको धोकर गुरुके पास चला जाता है | किन्तु यदि किसी भी घरसे आहार नहीं मिलता तो उपवास ग्रहण कर लेता है । यदि किसीको उक्त विधिसे गोचरी करना न रुचे तो वह मुनियोंके गोचरीका जानेके पश्चात् श्रावकके घरमें जावे, और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले तो उपवासका नियम लेलेना चाहिये ॥ गुरूके समीप जाकर विधि पूर्वक चार प्रकारके आहारका त्याग करता है । और यत्नपूर्वक गुरूके सामने अपने दोषोंकी आलोचना करता है ॥ दूसरे उत्कृष्ट श्रावककी भी यही क्रिया है । इतना विशेष है कि वह नियमसे केशलोंच करता है, पीछी रखता है और हाथमें भोजन करता है ॥ दिनमें प्रतिमायोग, स्वयं मुनिकी तरह भ्रामरीवृत्तिसे भोजनके लिये चर्या करना, त्रिकाल योग अर्थात् गर्मीमें पर्वतके शिखरपर, बरसातमें वृक्षके नीचे, और शीत ऋतुमें नदीके किनारे ध्यान करना, सूत्ररूप परमागमका और प्रायश्चित शास्त्रका अध्ययन, इन बातोंका अधिकार देश विरत श्रावकोंको नहीं है । इस प्रकार ग्यारहवें उद्दिष्टविरत श्रावकके दो भेदोंका कथन संक्षेपसे शास्त्रानुसार किया ॥” समन्तभद्रस्वामीने भी कहा है-"घर छोड़कर, जिस वनमें मुनि रहते हैं वहाँ जाकर, जो गुरुके समीप व्रतोंको ग्रहण करता है, और भिक्षा भोजन करता है, तपस्या करता है तथा खण्ड वस्त्र रखता है वह उत्कृष्ट श्रावक है ।" चारित्रसार नामक ग्रन्थमें लिखा है-'उद्दिष्ट त्यागी अपने उद्देशसे बनाये हुए भोजन, उपधि, शय्या, वसतिका आदिका त्यागी होता है । वह एक धोती रखता है, भिक्षा भोजन करता है और बैठकर अपने हाथमें ही भोजन करता है । रातमें प्रतिमायोग वगैरह तप करता है किन्तु आतापनयोग वगैरह नहीं करता । अणुव्रती और महाव्रती यदि समितियोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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