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________________ -३८४ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा ૨૮ कोटयः । योनिरन्धसमुत्पन्ना लिङ्गसंघट्टपीडिताः ॥' 'घाए घाइ असंखेजा' इति । स कः । यः ज्ञानवान् अमिलाएं वाञ्छां न कुरुते न विदधाति । कासाम् । सर्वासां स्त्रीणां, देवी मानुषी तिरश्वी काष्ठपाषाणादिघटिताऽचेतना स्त्री इति चतुर्विधानां युवतीनाम्, अभिलाषं न कुरुते । केन । मनसा चित्तेन वाचा वचनेन कायेन शरीरेण च शब्दात् कृतकारितानुमोदनेन च । मनःकृतकारितानुमोदनेन स्त्रीणां वाञ्छां न करोति न कारयति नानुमोदयति ३ [ वाचा कृतकारितानुमोदनेन | स्त्रीणां वाञ्छां न करोति न कारयति नानुमोदयति ३, कायकृतकारितानुमोदनेन स्त्रीणां वाञ्छां न करोति न कारयति नानुमोदयति ३ । तथाष्टादशशीलसहस्रप्रकारेण शीलवतं पालयति । अट्ठारससीलस हस्सेसु 'जोगे ३ करणे ३ सण्णा ४ इंदिय ५ णिद्दा १० य सवणधम्मो य । अण्णोणं हय अट्ठारससीलसहस्सा य ॥' देवी मानुषी तिरची अचेतना चतस्रः स्त्रीजातयः ४, मनोवचनकायैस्ताडिताः भेदाः १२, ते कृतकारितानुमतैस्त्रिभिः करणैः ३ गुणिताः मेदाः ३६, ते पञ्चेन्द्रियैर्हताः भेदाः १८०, ते दशसंस्कारैर्गुणिताः १८०० । तथाहि, शरीरसंस्कारः १, शृङ्गाररसरागसेवा २, हास्यक्रीडा ३, संसर्गवाञ्छा ४, विषयसंकल्पः ५, शरीरनिरीक्षणं ६, शरीरमण्डनं ७, दानं ८, पूर्वरतस्मरणं ९, मनश्चिन्ता १०, ते दशसंस्कारैर्गुणिताः १८००। ते दशकामचेष्टाभिर्गुणिताः भेदाः १८००० । तथाहि चिन्ता १, दर्शनेच्छा २, दीर्घोच्छ्वासः ३ शरीरे आर्तिः ४, शरीरदाहः ५, मन्दाग्निः ६, मूर्च्छा ७, , मदोन्मत्तः ८, प्राणसंदेहः ९, शुक्रमोचनम् १०, इति । तथा वगैरहसे बनाई गई अचेतन स्त्री आकृति । जो इन सभी प्रकारकी स्त्रियोंको मन वचन कायसे और कृत, कारित, अनुमोदनासे नहीं चाहता, अर्थात् स्वयं अपने मन में स्त्रीकी अभिलाषा नहीं करता, न दूसरेको वैसा करनेके लिये कहता है और न जो किसी स्त्रीको चाहता है उसकी मनसे सराहना करता है । न स्वयं स्त्रियोंके विषय में रागपूर्वक बात चीत करता है, न वैसा करनेके लिये किसीको कहता है और न जो वैसा करता है उसकी सराहना वचनसे करता है । स्वयं शरीरसे स्त्रीविषयक वांछा नहीं करता, न दूसरेको वैसा करनेका संकेत करता है और न जो ऐसा करता हो उसकी कायसे अनुमोदना करता है । वह ब्रह्मचारी है । ब्रह्मचर्य अथवा शीलवतके अठारह हजार भेद बतलाये हैं जो इस प्रकार हैं-देवी, मानुषी, तिरची और अचेतन ये स्त्रियोंकी चार जातियां हैं । इनको मन वचन और कायसे गुणा करने पर १२ भेद होते हैं । इन बारहको कृत, कारित और अनुमोदना से गुणा करने पर ३६ भेद होते हैं । इनको पाँचों इन्द्रियोंसे गुणा करने पर १८० भेद होते हैं । इनको दस संस्कारोंसे गुणा करने पर १८०० अट्ठारहसौ भेद होते हैं। दस संस्कार इस प्रकार हैं- शरीरका संस्कार करना, शृङ्गाररसका रागसहित सेवन करना, हंसी क्रीडा करना, संसर्ग की चाह करना, विषयका संकल्प करना, शरीरकी ओर ताकना, शरीर को सजाना, देना, पहले किये हुए संभोगका स्मरण करना और मनमें भोगकी चिन्ता करना । इन १८०० भेदोंको कामकी दस चेष्टाओंसे गुणा करने पर १८००० भेद होते हैं । कामकी दस चेष्टायें इस प्रकार हैं - चिन्ता, दर्शन की इच्छा, आहें भरना, शरीरमें पीडा, शरीर में जलन, खाना पीना छोड देना, मूर्छित हो जाना, उन्मत्त होजाना, जीवन में सन्देह और वीर्यपात । इन अट्ठारह हजार दोषोंको टालनेसे शीलके अट्ठारह हजार भेद होते हैं । पूर्ण ब्रह्मचारी इन भेदोंका पालन करता है। जो ब्रह्मचर्य पालता है वह बडाही दयालु होता है; क्यों कि स्त्रियोंके गुप्तांगमें, स्तन देशमें, नाभिमें और कांख में सूक्ष्म जीव रहते हैं । अतः जब पुरुष मैथुन करता है तो उससे उन जीवोंका घात होता है । आचार्य समन्तभद्रने ब्रह्मचर्य प्रतिमाका स्वरूप इस प्रकार कहा है- "स्त्रीके गुप्त अंगका मूल मल है, वह मलको उत्पन्न करनेवाला है, उससे सदा मल कार्त्तिके• ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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