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________________ २८० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३८४[छाया-यः निशिभुक्तिं वर्जयति स उपवासं करोति षण्मासम् । संवत्सरस्य मध्ये आरम्भं त्यजति रजन्याम् ॥] यः पुमान् निशि भुक्तिं चतुर्धा रात्रिभोजनं वर्जयति नियमेन निषेधयति स पुमान संवत्सरस्य मध्ये वर्षस्य मध्ये षण्मासमुपवासं करोति, तस्य षण्मासकृतोपवासफलं भवतीत्यर्थः । च पुनः, रजन्या रात्रौ स रात्रिभोजनविरक्तः पुमान् आरम्भ गृहव्यापार क्रयविक्रयवाणिज्यादिकं खण्डनीपीसनीचल्लीउदकुम्भप्रमार्जनीपञ्चसनादिकं त्यजति स रात्रिभोजनविरतः रात्रौ सावधपापव्यापारादिकं त्यजति । तथा चोक्तं च । 'अन्नं पानं खाद्यं लेह्य नाश्नाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः. ॥ यो निशि भुक्तिं मुञ्चति तेनानशनं कृतं च षण्मासम् । संवत्सरस्य मध्ये निर्दिष्टं मुनिवरेणेति ॥' तथा च चारित्रसारे 'रात्रिभक्तवतः रात्रौ स्त्रीणां भजनं रात्रिभक्तं तत् व्रतयति सेवते इति रात्रिभक्तवतः दिवा ब्रह्मचारीत्यर्थः । तथा वसुनन्दिना चोक्तं । 'मणवयणकायकदकारिदाणुमोदेहिं मेहुणं णवधा। दिवसम्मि जो विवजइ गुणम्मि सो सावओ छट्टो ॥' इति रात्रिभुक्तिव्रतप्रतिमा, सप्तमो धर्मः ७ ॥ ३८३ ॥ अथ ब्रह्मचर्यप्रतिमां बंभणीति सव्वेसिं इत्थीणं जो अहिलासंण कुव्वदे णाणी। मण-वाया-कायेण य बंभ-वई सो हवे सदओ॥ ३८४ ॥ जो कय-कारिय-मोयण-मण-वय-काएण मेहुणं चयदि । बंभ-पवजारूढो बंभ-वई सो हवे सदओ ॥ ३८४ *१॥ [छाया-सर्वासां स्त्रीणां यः अभिलाषं न कुरुते ज्ञानी । मनोवाकायेन च ब्रह्मव्रती स भवेत् सदयः ॥ यः कृतकारितमोदनमनोवाकायेन मैथुनं त्यजति । ब्रह्मप्रव्रज्यारूढः ब्रह्मव्रती स भवेत् सदयः ॥] स श्रावकः ब्रह्मचर्यव्रतधारी भवेत् । कीदृक्षः सदयः। स्त्रीशरीरोत्थजीवदयापरिणतः। उक्तं च । 'लिंगम्मि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु । भणिओ सुहुमो काओ तासिं कह होइ पव्वजा ॥” श्लोकः । 'मैथुनाचरणे मूढा म्रियन्ते जन्तुहै । और रात्रिमें आरम्भका त्याग करता है | भावार्थ-जो श्रावक रातमें चारोंही प्रकारके भोजनको ग्रहण नहीं करता वह प्रतिदिन रातभर उपवासी रहता है, क्यों कि चारों प्रकारके आहारको त्यागनेका नाम उपवास है । अतः वह एक वर्षमें छ: महीना भोजन करता है और छ: महीना उपवासी रहता है, इससे उसे प्रतिवर्ष छ: महीनेके उपवासका फल अनायास मिल जाता है । तथा रातमें कूटना, पीसना, पानी भरना, झाडू लगाना, चूल्हा जलाना आदि आरम्भ करनेसेभी वह बच जाता है । कहाभी है'जो रात्रिमें अन्न (अनाज ) पान ( पीने योग्य जल वगैरह ) खाद्य (लड्डू वगैरह ), लेह्य ( रबडी वगैरह ) को नहीं खाता वह प्राणियोंपर दया करनेवाला श्रावक रात्रिभोजनका त्यागी है ।' और भी कहा है-'जो रात्रिमें भोजनका त्याग करता है वह वर्षमें छ: महीना उपवास करता है ऐसा मुनिवरने कहा है ।' चारित्रसार नामक ग्रन्थमें रात्रिमेंही स्त्री सेवन करनेका व्रत लेनेवालेको रात्रिभुक्तवत कहा है, अर्थात् जो दिनमें मैथुनका त्याग करता है उसके यह प्रतिमा होती है । आचार्य वसुनन्दिका भी यही कहना है यथा-'जो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना इन नौ प्रकारोंसे दिनमें मैथुनका त्याग कर देता है वह छठी प्रतिमाका धारी श्रावक है ।" इस प्रकार रात्रिभुक्तवतका कथन हुआ ॥ ३८३ ॥ अब ब्रह्मचर्य प्रतिमाको कहते हैं। अर्थ-जो ज्ञानी मन, वचन और कायसे सब स्त्रियोंकी अभिलाषा नहीं करता वह दयालु ब्रह्मचर्यव्रतका धारी है ॥ भावार्थ-स्त्रियाँ चार प्रकारकी होती हैं-एक तो देवांगना, एक मानुषी, एक गाय, कुतिया वगैरह तिर्यञ्चनी और एक लकडी पत्थर ब गणवयण कायेण (१)। २ एषा गाथा ब म पुस्तकयोरेव । ३ म पुस्तके 'मोयण' इति पदं नास्ति । ४ ब सो इओ' इति मूलपाठः। ५ बंभवई ॥ जो इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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