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________________ २८२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३८५ 'मलबीज मलयोनि गलन्मलं पूतिगन्धिबीभत्सम् । पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥' 'यो न च याति विकार युवतिजनकटाक्षबाणविद्धोऽपि । स.त्वेव शूरशूरो रणशूरो नो भवेच्छरः ॥' इति ब्रह्मचर्यप्रतिमा, अष्टमो धर्मः ॥ ३८४ ॥ अथारम्भविरतिप्रतिमा वक्तुमारभते जो आरंभं ण कुणदि अण्णं कारयदि णेव अणुमण्णे'। हिंसा-संत-मणो चत्तारंभो हवे सो हुँ । ३८५ ॥ [छाया- यः आरम्भं न करोति अन्यं कारयति नैव अनुमन्यते । हिंसासंत्रस्तमनाः त्यक्तारम्भः भवेत् स खलु॥] हि निश्चितं, स त्यक्तारम्भः असिमषिकृषिवाणिज्याद्यारम्भनिवृत्तिप्रतिमापरिणतः श्रावको भवेत् । स कः । यः आरम्भम् असिमषिकृषिवाणिज्यादिगृहव्यापार प्रारम्भं स्वयम् आत्मना न करोति न विदधाति, च पुनः अन्यं परपुरुषं प्रेर्य आरम्भ नैव कारयति आरम्भं कुर्वन्तं नरं नानुमोदयति । परपुरुषम् आरम्भं पापकर्म सावद्यादिकं कुर्वन्तं दृष्ट्वा अनुमोदनामना: हर्षादिकं न प्राप्नोतीत्यर्थः । कीदक्षः सन् । हिंसासंत्रस्तमनाः हिंसायाः संत्रस्तं त्रासं भयं प्राप्तं मनो यस्य स हिंसासंत्रस्तमनाः हिंसायाः प्राणातिपातात् भयभीतचित्तः । तथा चोक्तं च । 'सेवाकृषिवाणिज्य प्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योसावारम्भविनिवृत्तः ॥ इत्यारम्भविरतिप्रतिमा, नवमः श्रावकधर्मः ९॥३८५॥ अथः परिग्रहविरतिप्रतिमां गाथाद्वयेन विवृणोति जो परिवजई गंथं अभंतर-बाहिरं च साणंदो। पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी ॥ ३८६ ॥ [छाया-यः परिवर्जयति ग्रन्थम् अभ्यन्तरबाह्य च सानन्दः । पापम् इति मन्यमानः निर्ग्रन्थः स भवेत् ज्ञानी ॥] स ज्ञानी भेदज्ञानी विवेकसंपन्नः निर्ग्रन्थः ग्रन्थेभ्यः पाह्याभ्यन्तरपरिग्रहेभ्यः निःकान्तो निर्गतः निर्ग्रन्थः । निरादयो निर्ग बहता रहता है, दुर्गन्धयुक्त है, देखनेमें बीभत्स है । ऐसे अंगको देखकर जो कामसे विरक्त होता है यह ब्रह्मचारी है ।" और भी कहा है-'जो युवतियोंके कटाक्षरूपी बाणोंसे घायल होनेपरभी विकारको प्राप्त नहीं होता वही पुरुष शूरवीरोंमें शूरवीर है । जो रणके मैदानमें शूर है वह सच्चा शूर नहीं है।' इस प्रकार आठवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमाका खरूप कहा ।। ३८४ ॥ आगे आरम्भ त्याग प्रतिमाको कहते हैं । अर्थ-जो श्रावक आरम्भ नहीं करता, न दूसरेसे कराता है और जो आरम्भ करता है उसकी अनुमोदना नहीं करता, हिंसासे भयभीत मनवाले उस श्रावकको आरम्भ त्यागी कहते हैं ।। भावार्थहिंसाके भयसे जो श्रावक तलवार चलाना, मुनीमी करना, खेती, व्यापार करना इत्यादि आरम्भोंको न तो स्वयं करता है, न दूसरे पुरुषोंको आरम्भ करनेकी प्रेरणा करता है और न आरम्भ करते हुए मनुष्यको देखकर मनमें हर्षित होता है वह आरम्भत्यागी है । कहा भी है-"जो हिंसाका कारण होनेसे खेती, नौकरी व्यापार आदि आरम्भसे विरक्त होजाता है वह आरम्भत्यागी है ।" इससे यह प्रकट होता है कि आरम्भत्यागी श्रावक जीविका उपार्जनके लिये कोई आरम्भ नहीं करता । किन्तु गृह सम्बन्धी आरम्भका त्याग उसके नहीं होता । अतः वह स्वयं भोजन बनाकर खा सकता है । इस प्रकार आरम्भत्याग प्रतिमा का खरूप कहा ॥ ३८५ ॥ आगे दो गाथाओंसे परिग्रहत्याग प्रतिमाको कहते हैं । अर्थ-जो ज्ञानी पुरुष पाप मानकर अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रहको आनन्दपूर्वक छोड १ व अणुमण्णे (मण्णो ? ) म अणुमण्णो, ल स अणुमण्णे (गमणो)। २०मस गहि। सभणारंभा ॥ जो परिवज्जइ इत्यादि । ४ म पडिवज्जइ, स परिवज्जदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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