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________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा २७९ जो वजेदि सचित्तं दुजय-जीहा विणिज्जिया तेण । दय-भावो होदि किओ' जिण-वयणं पालियं तेण ॥ ३८१॥ [छाया-यः वर्जयति सचित्तं दुर्जयजिड्डा विनिर्जिता तेन । दयाभावः भवति कृतः जिनवचनं पालितं तेन ॥ ] तेन पुंसा दुर्जयजिहापि दुःखेन जीयते इति दुर्जया सा चासौ जिह्वा च दुर्जयजिह्वा दुःखेन जेतुमशक्या रसना, अपिशब्दात् शेषेन्द्रियाणि, निर्जिता जयं नीता वशं नीता इत्यर्थः । तेन दयाभावः कृपापरिणामः कृतः निष्पादितो भवति । तथा तेन पुंसा जिनवचनं पालितं सर्वज्ञवाक्यं पालितं रक्षितं भवति । तेन केन । यः सचित्तं जलफलदलकन्दबीजादिकं वर्जयति निषेधयति । इत्यनुप्रेक्षायां सचित्तविरतिप्रतिमा, षष्ठो धर्मो व्याख्यातः ६ ॥३८१॥ अथ रात्रिभोजनविरतिप्रतिमां गाथाद्वयेनाह जो चउ-विहं पि भोजं रयणीएँ णेव भुंजदेणाणी। ण य भुंजावदि अण्णं णिसि-विरओ सो हवे.भोज्जो ॥ ३८२ ॥ [छाया-यः चतुर्विधम् अपि भोज्यं रजन्यां नैव भुते ज्ञानी। न च भोजयति अन्य निशि विरतः स भवेत् भोज्यः॥1 स भोज्यः भक्तः श्राद्धः भवेत् जायते । अथवा निशि रात्रौ भोज्यात् भुक्तः आहारात् विरतः निवृत्तः रात्रिभुक्तिविरत इत्यर्थः । स कः । यः ज्ञानी सन् ज्ञानवान् बुद्धिमान् रजन्यां निशायां चतुर्विधमपि भोज्यम् अशनपानखाद्यवाद्यादिक भोजनम् आहार नैव भुते नैवात्ति, च पुनः, अन्यं परपुरुषं न भोजयति भोजनं नैव कारयति ॥ ३८२ ।। जो णिसि-भुत्तिं र्वजदि सो उववासं करेदि छम्मासं। संवच्छरस्स मज्झे आरंभं चयदि रयणीए ॥ ३८३ ॥ अर्थ-जिस श्रावकने सचित्तका त्याग किया उसने दुर्जय जिह्वाको भी जीत लिया, तथा दयाभाव प्रकट किया और जिनेश्वरके वचनोंका पालन किया ॥ भावार्थ-जिह्वा इन्द्रियका जीतना बड़ा कठिन है। जो लोग विषयसुखसे विरक्त होजाते हैं उन्हें भी जिह्वाका लम्पटी पाया जाता है। किन्तु सचित्तका त्यागी जिह्वा इन्द्रियको भी जीत लेता है। वैसे सचित्तके त्यागनेसे सभी इन्द्रियों वशमें होती हैं, क्यों कि सचित्त वस्तुका भक्षण मादक और पुष्टिकारक होता है । इसीसे यद्यपि सचित्तको अचित्त करके खानेमें प्राणिसंयम नहीं पलता किन्तु इन्द्रिय संयमको पालनेकी दृष्टि से सचित्त त्याग आवश्यक है। सुखाने, पकाने, खटाई, नमक वगैरहके मिलाने तथा चाकू वगैरहसे काट देनेपर सचित्त वस्तु अचित्त हो जाती है । ऐसी वस्तुके खानेसे पहला लाभ तो यह है कि इन्द्रियों काबूमें होती हैं । दूसरे इससे दयाभाव प्रकट होता है, तीसरे भगवानकी आज्ञाका पालन होता है, क्योंकि हरितकाय वनस्पतिमें भगवानने जीवका अस्तित्व बतलाया है । यहाँ इतना विशेष जानना कि भोगोपभोग परिमाण व्रतमें सचित्त भोजनको अतिचार मान र छुडाया गया है, और यहाँ उसका व्रत रूपसे निरतिचार त्याग होता है । इस प्रकार छठी सचित्त त्याग प्रतिमाका वर्णन समाप्त हुआ ॥ ३८१ ॥ अब रात्रिभोजन त्याग प्रतिमाको दो गाथाओंसे कहते हैं । अर्थ-जो ज्ञानी श्रावक रात्रिमें चारों प्रकारके भोजनको नहीं करता और न दूसरेको रात्रिमें भोजन कराता है वह रात्रि भोजनका त्यागी होता है | भावार्थरात्रिमें खाद्य, खाद्य, लेह्य और पेय चारोंही प्रकारके भोजनको न स्वयं खाना और न दूसरेको खिलाना रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा है । वैसे रात्रि भोजनका त्याग तो पहली और दूसरी प्रतिमामें ही हो जाता है क्योंकि रातमें भोजन करनेसे मांस खानेका दोष लगता है, रातमें जीवजन्तुओंका बाहुल्य रहता है और तेजसे तेज रोशनी होने परभी उनमें धोखा होजाता है। अतः त्रसजीवोंका घातभी होता है । परन्तु यहाँ कृत और कारित रूपसे चारोंही प्रकारके भोजनका त्याग निरतिचार रूपसे होता है ।। ३८२ ।। अर्थ-जो पुरुष रात्रिभोजनको छोड देता है वह एक वर्षमें छ: महीना उपवास करता १स विणिज्जिदा। २ब दयभावो वि य अजिउ (1)। ३ सचित्त विरदी। जो चउविहं इत्यादि । ४ल मसग रयणीये । ५ब भुंजदि । दलमसरा मुंजावर (प.)। बमुज्जो। ८लमसरा मुयादि । १ब रायमन्तीए !! सबसिं इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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