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________________ -२२६] १०. लोकानुप्रेक्षा [छाया-यत् वस्तु अनेकान्तं तत् एव कार्य करोति नियमेन । बहुधर्मयुतः अर्थः कार्यकरः दृश्यते लोके ॥] तदेव वस्तु द्रव्य जीवादिपदार्थ नियमेन अवश्यंभावेन कार्य करोति । यद्वस्तु अनेकान्तम् अनेकस्वरूपम् अनन्तधर्मात्मकम् अनन्तानन्तगुणपर्यायात्मकम् । तथा चोक्तं जैनेन्द्र श्रीपूज्यपादेन । 'सिद्धिरनेकान्तात् ।' लोके जगति, अर्थः जीवादिपदार्थः, बहुधर्मयुक्तः सदसन्नित्यानित्यभिन्नाभिन्नास्तिनास्त्याद्यनेकस्वभावयुक्तः, कार्यकरः अर्थक्रियाकारी, दृश्यते अवलोक्यते । [एकमपि द्रव्यं कथं सप्तभङ्गात्मकं भवति । प्रश्नपरिहारमाह । यथा एकोऽपि देवदत्तः पुमान् गौणमुख्यविवक्षावशेन बहुप्रकारो भवति । पुत्रापेक्षया पिता भण्यते । सोऽपि स्वकीयपित्रपेक्षया पुत्रो भण्यते । मातुलापेक्षया भागिनेयो भण्यते । स एव भागिनेयापेक्षया मातुलो भण्यते। भार्यापेक्षया भर्ता भण्यते । भगिन्यपेक्षया भ्राता भण्यते । विपक्षापेक्षया शत्रुर्भण्यते । इष्टापेक्षया मित्रं भण्यते, इत्यादि । तथैकमपि द्रव्यम् अनेकात्मकम् इत्याद्यनेकधर्माविष्टः पुरुषः अनेककार्यं कुर्वन् दृष्टः । एवं सर्व वस्तु अनेकान्तात्मकं सत्त्वात् इत्ययं हेतुः सर्वस्य वस्तुनः अनेकधर्मत्वं साधयत्येव ॥ २२५ ॥ अथ सर्वथैकान्तवस्तुनः कार्यकारित्वं प्रतिरुणद्धि एयंतं पुणु दवं कजं ण करेदि लेस-मेत्तं पि । जं पुणु ण करदि कजं तं वुच्चदि केरिसं दबं ॥ २२६ ॥ क्रियाकारी है । अर्थ-जो वस्तु अनेकान्तरूप है वही नियमसे कार्यकारी है; क्योंकि लोकमें बहुत धर्मयुक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है ॥ भावार्थ-अनेक धर्मात्मक वस्तु ही कोई कार्य कर सकती है। इसीसे पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणका प्रथम सूत्र सिद्धिरनेकान्तात्' रखा है। जो बतलाता है किसी भी कार्यकी सिद्धि अनेकान्तसे ही हो सकती है। उदाहरणके लिये जो वादी वस्तुको नित्य अथवा क्षणिक ही मानते हैं उनके मतमें अर्थक्रिया नहीं बनती। कार्य करनेके दो ही प्रकार हैं एक क्रमसे और एक एकसाथ । नित्यवस्तु क्रमसे काम नहीं कर सकती; क्योंकि सब कार्योंको एक साथ उत्पन्न करनेकी उसमें सामर्थ्य है। यदि कहा जाये कि सहायकोंके मिलनेपर नित्य पदार्थ कार्य करता है और सहायकोंके अभाव में कार्य नहीं करता । तो इसका यह मतलब हुआ कि पहले वह नित्यपदार्थ कार्य करनेमें असमर्थ था, पीछे सहकारियोंके मिलनेपर समर्थ हुआ। तो असमर्थ स्वभावको छोड़कर समर्थ स्वभावको ग्रहण करनेके कारण वह सर्वथा नित्य नहीं रहा । सर्वथा नित्य तो वही हो सकता है जिसमें कुछ भी परिवर्तन न हो । यदि वह नित्य पदार्थ एक साथ सब काम कर लेता है तो प्रथम समयमें ही सबकाम करलेनेसे दूसरे समयमें उसके करनेको कुछ भी काम शेष न रहेगा । और ऐसी अवस्थामें वह असत् हो जायेगा; क्यों कि सत् वही है जो सदा कुछ न कुछ किया करता है । अतः क्रमसे और एक साथ काम न कर सकनेसे नित्यवस्तुमें अर्थक्रिया नहीं बनती । इसी तरह जो वस्तुको पर्यायकी तरह सर्वथा क्षणिक मानते हैं उनके मतमें भी अर्थक्रिया नहीं बनती । क्योंकि क्षणिक वस्तु क्रमसे तो कार्य कर नहीं सकती; क्योंकि क्षणिक तो एक क्षणवर्ती होता है, अतः वहाँ क्रम बन ही कैसे सकता है ?क्रमसे तो वही कार्य कर सकता है जो कुछ क्षणों तक ठहर सके । और यदि वह कुछ क्षणों तक ठहरता है तो वह क्षणिक नहीं रहता। इसी तरह क्षणिक वस्तु एक साथ भी काम नहीं कर सकती क्योंकि वैसा होनेसे कारणके रहते हुए ही कार्यकी उत्पत्ति हो जायेगी, तथा उस कार्यके कार्यकी भी उत्पत्ति उसी क्षणमें हो जायेगी। इस तरह सब गड़बड़ हो जायेगी । अतः वस्तुको द्रव्यकी अपेक्षा नित्य और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य मानना ही उचित है। तभी वस्तु अर्थक्रियाकारी बन सकती है ॥ २२५॥ आगे कहते है कि सर्वथा एकान्त रूप १ म स पुण। २ म मित्तं (१)। ३ म पुण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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