SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २२५नित्यत्वं पर्यायापेक्षयानित्यत्वम् , द्रव्यापेक्षया एकत्वं पर्यायापेक्षयानेकत्वम् , गुणगुणिभावेन भिन्नत्वं तयोरम्यतिरेकेण कथंचित् अभिन्नत्वम् इत्याद्यनेकधर्मात्मक वस्तु अनन्तानन्तपर्यायात्मक द्रव्यं कथ्यते ॥ २२४॥ अथ वस्तुनः कार्यकारित्वमिति निगदति जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कजं करेदि णियमेण । बहु-धम्म-जुदं अत्थं कज-करं दीसदे' लोए ॥ २२५ ॥ और पुत्रकी दृष्टिसे देवदत्तका पितृत्वधर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण हैं। क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तुके जिस धर्मकी विवक्षा होती है वह धर्म मुख्य कहाता है और शेष धर्म गौण । अतः वस्तुके अनेक धर्मात्मक होने और शब्दमें पूरे धर्मोको एक साथ एक समयमें कह सकनेकी सामर्थ्य न होनेके कारण, समस्त वाक्योंके साथ 'स्यात्' शब्दका व्यवहार आवश्यक समझा गया, जिससे सुनने वालोंको कोई धोखा न हो । यह 'स्यात्' शब्द विवक्षित धर्ममें इतर धर्मोंका द्योतक या सूचक होता है । 'स्यात्' का अर्थ है 'कथंचित्' या 'किसी अपेक्षासे' । यह बतलाता है कि जो सत् है वह किसी अपेक्षासे ही सत् है । अतः प्रत्येक वस्तु 'स्यात् सत्' और 'स्यात् असत्' है। इसीका नाम स्याद्वाद है। वस्तुके प्रत्येक धर्मको लेकर अविरोध पूर्वक विधिप्रतिषेधका कथन सात भङ्गोंके द्वारा किया जाता है। उसे सप्तभंगी कहते हैं । जैसे वस्तुके अस्तित्व धर्मको लेकर यदि कथन किया जाये तो वह इस प्रकार होगा-'स्यात् सत्' अर्थात् वस्तु खरूपकी अपेक्षा है १ । 'स्यात् असत्'-वस्तु पररूपकी अपेक्षा नहीं है २ । 'स्यात् सत् स्यात् असत्'–वस्तु खरूपकी अपेक्षा है और पररूपकी अपेक्षा नहीं है ३। इन तीनों वाक्योंमेंसे पहला वाक्य वस्तु का अस्तित्व बतलाता है, दूसरा वाक्य नास्तित्व बतलाता है, और तीसरा वाक्य अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मोको क्रमसे बतलाता है। इन दोनों धर्मोको यदि कोई एक साथ कहना चाहे तो नहीं कह सकता, क्योंकि एक शब्द एक समयमें विधि और निषेधर्मेसे एकका ही कथन कर सकता है। अतः ऐसी अवस्थामें वस्तु अवक्तव्य ठहरती है, अर्थात् उसे शब्दके द्वारा नहीं कहा जा सकता । अतः 'स्यात् अवक्तव्य' यह चौथा भङ्ग है ४ । सप्तभंगीके मूल ये चार ही भंग हैं । इन्हींको मिलानेसे सात भंग होते हैं। अर्थात् चतुर्थ भंग 'स्यात् अवक्तव्य' के साथ क्रमसे पहले, दूसरे और तीसरे भंगको मिलानेसे पांचवां, छठा और सातवा भंग बनता है । यथा, स्यात् सदवक्तव्य ५, स्यादसदवक्तव्य ६, और स्यात् सदसदवक्तव्य ७ । यानी वस्तु कथंचित् सत् और अवक्तव्य है ५, कथंचित् असत् और अवक्तव्य है ६, तथा कथंचित् सत्, कथंचित् असत् और अवक्तव्य है ७ । इन सात भंगोंमेंसे वस्तुके अस्तित्व धर्मकी विवक्षा होनेसे प्रथम भंग है, नास्तित्व धर्मकी विवक्षा होनेसे दूसरा भंग है । क्रम से 'अस्ति' 'नास्ति' दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेसे तीसरा भंग है । एक साथ दोनों धर्मोंकी विवक्षा होनेसे चौथा भंग है। अस्तित्व धर्मके साथ युगपत् दोनों धर्मोंकी विवक्षा होनेसे पांचवा भंग है । नास्तित्व धर्मके साथ युगपत् दोनों धर्मोंकी विवक्षा होनेसे छठा भंग है । और क्रमसे तथा युगपत् दोनों धर्मोकी विवक्षा होनेसे सातवां भंग है । इसी तरह एक अनेक, नित्य अनित्य आदि धर्मोंमें भी एककी विधि और दूसरेके निषेधके द्वारा सप्तभंगी लगा लेनी चाहिये ॥ २२४ ॥ आगे बतलाते हैं कि अनेकान्तात्मक वस्तु ही अर्थ १म करेइ (?)। २० म स ग दीसए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy