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________________ १६० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २२६[छाया-एकान्तं पुनः द्रव्यं कार्य न करोति लेशमात्रम् अपि । यत् पुनः न करोति कार्य तत्, उच्यते कीदृशं द्रव्यम् ॥1 पुनः एकान्तं द्रव्यं जीवादिवस्तु सर्वथा नित्यं सर्वथा सत् सर्वथा भिन्नं सर्वथैकं सर्वथानित्यमित्यादिधर्मविशिष्ट वस्तु लेशमात्रमपि [एकमपि ] कार्य न करोति, तुच्छमपि प्रयोजनं न विदधाति । कुतः । सदसनित्यानित्यायेकान्तेषु क्रमयोगपद्याभावात् कार्यकारित्वाभावः । यत्पुनः द्रव्यं कार्य न करोति तत्कीदृशं द्रव्यमुच्यते । यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । यद्वस्तु क्रमेण युगपच्च अर्थक्रियां करोति तदेव वस्तु उच्यते । यदर्थक्रियां न करोति खरविषाणवत् , वस्त्वेव न स्यादिति । तथा चोक्तं च । 'दुर्नयैकान्तमारूढा भावा न खार्थिका हि ते । स्वार्थिकाश्च विपर्यस्ताः सकलङ्का नया यतः। तत्कथम् । तथाहि । सर्वथा एकान्तेन सद्रूपस्य न नियतार्थव्यवस्था संकरादिदोषत्वात् । तथाऽसद्रूपस्य सकलशून्यताप्रसंगात् , नित्यस्यैकरूपत्वात् एकरूपस्यार्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारि. स्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः । अनित्यपक्षेऽपि निरन्वयत्वात् , अर्थक्रियाकारित्वाभावः। अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याक भावः । एकखरूपस्यैकान्तेन विशेषाभावः सर्वथैकरूपत्वात्। विशेषाभावे सामान्यस्याप्यभावः । निर्विशेष हि सामान्य भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि ॥ इति ज्ञेयः । अनेकपक्षेऽपि तथा द्रव्याभावो निराधारत्वात् आधाराधेयाभावाच । भेदपक्षेऽपि विशेषखभावानां निराधारत्वात् अर्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारित्वाभावे द्रव्यस्याप्यभावः । अभेदपक्षेऽपि सर्वेषामेकत्वम् । सर्वेषामेकत्वे अर्थक्रियाकारित्वाभावः । अर्थक्रियाकारित्वाभावे वस्तु कार्यकारी नहीं है । अर्थ-एकान्त स्वरूप द्रव्य लेशमात्र भी कार्य नहीं करता। और जो कार्य नहीं करता उसे द्रव्य कैसे कहा जा सकता है ॥ भावार्थ-यदि जीवादि वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा सत् या सर्वथा भिन्न, अथवा सर्वथा एक या सर्वथा अनित्य आदि एकान्त रूप हो तो वह कुछ भी कार्य नहीं कर सकती । और जो कुछ भी कार्यकारी नहीं उसे वस्तु या द्रव्य कैसे कहा जा सकता है; क्योंकि जो कुछ न कुछ कार्यकारी है वही वास्तवमें सत् है । सत् का लक्षण ही अर्थक्रिया है । अतः जो कुछ भी काम नहीं करता वह गधेके सींगकी तरह अवस्तु ही है। कहा भी है'दुर्नयके विषयभूत एकान्त रूप पदार्थ वास्तविक नहीं हैं। क्योंकि दुर्नय केवल स्वार्थिक हैं, वे अन्य नयोंकी अपेक्षा न करके केवल अपनी पुष्टि करते हैं, और जो स्वार्थिक अत एव विपरीत होते हैं वे नय सदोष होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है। यदि वस्तुको सर्वथा एकान्तसे सद्रूप माना जायेगा तो संकर आदि दोषोंके आनेसे नियत अर्थकी व्यवस्था नहीं बनेगी । अर्थात् जब प्रत्येक वस्तु सर्वथा सत् स्वरूप मानी जायेगी तो वह सब रूप होगी । और ऐसी स्थितिमें जीव, पुद्गल आदिके भी परस्परमें एक रूप होनेसे जीव पुद्गलका भेद ही समाप्त हो जायेगा । इसी तरह जीव जीव और पुद्गल पुद्गलका भेद भी समाप्त हो जायेगा । तथा वस्तुको सर्वथा असद्रूप माननेसे समस्त संसार शून्य रूप हो जायेगा। इसी तरह वस्तुको सर्वथा नित्य मानने से वह सदा एकरूप रहेगी । और सदा एक रूप रहनेसे वह अर्थक्रिया नहीं कर सकेगी तथा अर्थक्रिया न करनेसे वस्तुका ही अभाव हो जायेगा । वस्तुको सर्वथा क्षणिक माननेसे दूसरे क्षणमें ही वस्तुका सर्वथा विनाश हो जानेसे वह कोई कार्य कैसे कर सकेगी। और कुछ भी कार्य न कर सकनेसे वस्तुका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकेगा। इसी तरह वस्तुको सर्वथा एक रूप माननेपर उसमें विशेष धर्मका अभाव हो जायेगा क्योंकि वह सर्वथा एकरूप है । और विशेष धर्मका अभाव होनेसे सामान्य धर्मका भी अभाव हो जायेगा क्योंकि बिना विशेषका सामान्य गधेके सींगकी तरह असत् है और बिना सामान्यका विशेष भी गधेके सींगकी तरह असत् है । अर्थात् न विना सामान्यके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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