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________________ १२८ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १९१पापखरूपो जीवः नित्यं सदा अतितीव्रकषायपरिणतः, अतितीव्राः अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभकषायादयः मिथ्यात्वादयश्च तैः परिणतः तत्परिणामयुक्तः इत्यर्थः । अपि पुनः, जीवो भवति । किं तत् । पुण्यं पुण्यरूपः स्यात् । कीहक् । संयुक्तः सहितः। केन । उपशमभावेन, उपशमसम्यक्त्वोपशमचारित्रपरिणामरूपेण सहितः । उपलक्षणमेतत् । तेन क्षायिकसम्यवक्षायिकचारित्रादिरूपेण परिणतः जीवः पुण्यरूपो भवति अपिशब्दाद्वा पुण्यपापरहितो जीवो भवति । कोऽसौ । अर्हन् सिद्धपरमेष्ठी जीवः । तथा गोम्मटसारे पापजीवाः पुण्यजीवाः पुण्यं पापं चेति यदुक्तं तदुच्यते । “जीविदरे कम्मचये पुणं पावो त्ति होदि पुण्णं तु । सुहपयडीणं दव्वं पावं असुहाण दव्वं तु ॥" जीवपदार्थप्रतिपादने सामान्येन गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टयः सासादनाश्च पापजीवाः । मिश्राः पुण्यपापमिश्रजीवाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रपरिणामपरिणतत्वात् । असंयताः सम्यक्तवेन, देशसंयताः सम्यक्त्वेन देशव्रतेन च युक्तत्वात् पुण्यजीवा एवेत्युक्ताः। अनन्तरम् अजीवपदार्थप्ररूपणे कर्मचये कार्मणस्कन्धे पुण्यं पापमित्यजीवपदार्थों द्वधा । तत्र शुभप्रकृतीनां सद्वेधशुभा. युर्नामगोत्राणां द्रव्यं पुण्यं भवति । अशुभनामसद्वेद्यादिसर्वाप्रशस्तप्रकृतीनां द्रव्यं तु पुनः पापं भवति ॥ १९॥ तथा जीवस्तीर्थभूतो भवति तदाह रयणत्तय-संजुत्तो जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं ।। संसारं तरइ जदो रयणत्तय-दिव्व-णावाएं ॥ १९१ ॥ [छाया-रत्नत्रयसंयुक्तः जीवः अपि भवति उत्तमं तीर्थम् । संसार तरति यतः रत्नत्रयदिव्यनावा ॥] अपि पुनः, जीवो भवति । किं तत् । उत्तमं सर्वोत्कृष्टं तीर्थ, सर्वेषां तीर्थानां मध्ये सर्वोत्कृष्टः अनुपमः तीर्थभूतो जीवो व्रतसे सहित होनेसे और प्रमत्त संयत आदि गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक्त्व और महाव्रतसे सहित होनेसे पुण्यात्मा जीव हैं । अजीव पदार्थका वर्णन करते हुए-चूंकि कार्मणस्कन्ध पुण्यरूपभी होता है और पापरूपभी होता है अतः अजीवके भी दो भेद हैं। उनमेंसे सातावेदनीय, नरकायुके सिवा शेष तीन आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र इन शुभ प्रकृतियोंका द्रव्य पुण्यरूप है । और घातिया कर्मोंकी सब प्रकृतियां, असातावेदनीय, नरकायु, अशुभनाम, नीचगोत्र इन अशुभ प्रकृतियोंका द्रव्य पापरूप है । विशेषार्थ इस प्रकार है । क्रोध मान माया और लोभकषायकी तीव्रतासे तो पापरूप परिणाम होते हैं, और इनकी मन्दतासे पुण्यरूप परिणाम होते हैं । जिस जीवके पुण्यरूप परिणाम होते हैं वह पुण्यात्मा है, और जिस जीवके पापरूप परिणाम होते हैं वह पापी है। इस तरह एक ही जीव कालभेदसे दोनों तरहके परिणाम होनेके कारण पुण्यात्मा और पापात्मा कहा जाता ' है । क्योंकि जब जीव सम्यक्त्व सहित होता है तो उसके तीव्र कषायोंकी जड़ कट जाती है अतः वह पुण्यात्मा कहा जाता है । और जब वही जीव मिथ्यात्वमें था तो उसके कषायोंकी जड़ बड़ी गहरी थी अतः तब वही पापी कहलाता था । आजकल लोग जिसको धनी और ऐश्वर्यसम्पन्न देखते हैं भलेही वह पाप करता हो उसे पुण्यात्मा कहने लगते हैं, और जो निर्धन गरीब होता है भलेही वह धर्मात्मा हो उसे पापी समझ बैठते हैं । यह लोगोंकी समझकी गल्ती है । पुण्य और पापका फल भोगनेवाला पुण्यात्मा और पापी नहीं है, जो पुण्यकर्म शुभभावपूर्वक करता है वही पुण्यात्मा है और जो अशुभ कर्म करता है वही पापी है । पापपुण्यका सम्बन्ध जीवके भावोंसे हैं ॥ १९० ॥ आगे कहते हैं कि वही जीव तीर्थरूप होता है । अर्थ-रत्नत्रयसे सहित यही जीव उत्सम तीर्थ है; क्योंकि वह रत्नत्रय रूपी दिव्य नावसे संसारको पार करता है ॥ भावार्थ-जिसके १बनावाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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