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________________ -१९०] १०. लोकानुप्रेक्षा १२७ भुक्ने ज्ञानावरणादिपुद्गलकर्मफलं सातासातजं सुखदुःखरूपं भुनक्ति । सोऽपि संसारे द्रव्यादिपञ्चप्रकारे भवे भुजति भुनक्ति । किं तत् । विविधं नानाप्रकारम् अनेकप्रकार कर्मविपाकं कर्मोदयम् , अशुभं निम्बकाजीरविषहालाहलरूपं शुभ च गुडखण्डशर्करामृतरूपं च भुक्ते । अपिशब्दात् निश्चयनयेन रागादिविकल्पोपाधिरहितो जीवः खात्मोत्थसुखामृतभोक्ता भवति ॥ १८९॥ जीवो वि हवे पावं अइ-तिव्व-कसाय-परिणदो णिचं । जीवो वि हवई पुण्णं उवसम-भावेण संजुत्तो ॥ १९०॥ छाया-जीवः अपि भवेत् पापम् अतितीव्रकषायपरिणतः नित्यम् । जीवः अपि भवति पुण्यम उपशमभावेन संयुक्तः ॥] जीवः आत्मा पापं भवति पापखरूपः स्यात् । अपिशब्दात् पापपुण्याभ्यां मिश्रो भवति । कीकू सन् कालसे कर्मबंधनसे बद्ध होनेके कारण सदा मोह राग और द्वेषरूप अशुद्ध भावोंसे परिणमता रहता है । अतः इन भावोंका निमित्त पाकर पुद्गल अपनी ही उपादान शक्तिसे आठ प्रकार कर्मरूप हो जाते हैं । और जैसे तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम या मन्द, मन्दतर और मन्दतम परिणाम होते हैं उसीके अनुसार कर्मों में अनुभाग शक्ति पड़जाती है । अनुभाग शक्तिके तरतमांशकी उपमा चार विकल्पोंके द्वारा दी गई है । घातिया कोंमें तो लतारूप, दारुरूप, अस्थिरूप और शैलरूप अनुभाग शक्ति होती है । अघातिया कोंके दो भेद हैं-शुभ और अशुभ । शुभ कर्मोंकी अनुभाग शक्तिकी उपमा गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृतसे दी जाती है और अशुभ कर्मोकी अनुभाग शक्तिकी उपमा नीम, कंजीर, विष और हलाहल विषसे दी जाती है । जैसी अनुभाग शक्ति पड़ती है उसीके अनुरूप कर्म अपना फल देता है। हां तो, जीव और पुद्गल कर्म परस्परमें एकक्षेत्रावगाहरूप होकर आपसमें बंध जाते हैं। कर्मका उदय काल आनेपर जब वे कर्म अपना फल देकर अलग होने लगते हैं तब निश्चयनयसे तो कर्म आत्मके सुखदुःख रूप परिणामोंमें और व्यवहारसे इष्ट अनिष्ट पदार्थोंकी प्राप्तिमें निमित्त होते हैं तथा जीव निश्चयसे तो कर्मके निमित्तसे होने वाले अपने सुखदुःखरूप परिणामों को भोगता है और व्यवहारसे इष्ट अनिष्ट पदार्थोंको भोगता है, अतः जीव भोक्ता भी है । उसमें भोगनेका गुण है ॥१८९॥ अर्थ-जब यह जीव अति तीव्र कषायरूप परिणमन करता है तब यही जीव पापरूप होता है और जब उपशमभावरूप परिणमन करता है तब यही जीव पुण्यरूप होता है | भावार्थ-सदा अतितीव्र अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय तथा मिथ्यात्व आदि रूप परिणामोंसे युक्त हुआ जीव पापी है, और औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र तथा क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र रूप परिणामोंसे युक्त यही जीव पुण्यात्मा है । 'अपि' शब्दसे यही जीव जब अर्हन्त अथवा सिद्ध परमेष्ठी होजाता है तो यह पुण्य और पाप दोनोंसे रहित होजाता है। गोम्मटसारमें पापी जीव पुण्यात्मा जीव, पाप और पुण्यका खरूप बतलाते हुए लिखा है । 'जीविदरे कम्मचये पुण्ण पावो त्ति होदि पुण्णं तु । सुह पयडीणं दव्वं पावं असुहाण दव्वं तु ॥ ६४३ ॥' अर्थात्-जीव पदार्थका वर्णन करते हुए सामान्यसे गुणस्थानों से मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवी जीव तो पापी है । मिश्रगुणस्थानवाले जीव पुण्यपापरूप हैं; क्योंकि उनके एकसाथ मम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिलेहुए परिणाम होते हैं। तथा असंयत सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व सहित होनेसें, देशसंयत सम्यक्त्व और १ क म स ग हवइ । २ ल म स ग जीवो हवेह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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