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________________ १०. लोकानुप्रेक्षा भवेदित्यर्थः । तीर्यते संसारोऽनेनेति तीर्थम् । कीदृक् सन् जीवः । रमत्रयसंयुक्तः, व्यवहारनिश्चयसम्यग्दर्शनशानचारित्ररूपरत्नत्रयेण सहितः आत्मा तीर्थ स्यात् । यतः यस्मात्कारणात् तरति । कम् । तं संसार भवसमुद्रम् । संसारसमुद्रस्य पार गच्छतीत्यर्थः । कया । रत्नत्रयदिव्यनावा रत्नत्रयसर्वोत्कृष्टतरण्या सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपनौकया आत्मा भवसमुद्रं तरतीत्यर्थः ॥ १९१॥ अथातोऽन्येऽपि जीवप्रकारा भण्यन्ते - जीवा हवंति तिविहीं बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥ १९२॥ [छाया-जीवाः भवन्ति त्रिविधाः बहिरात्मा तथा च अन्तरात्मा च । परमात्मानः अपि च द्विधा महन्तः तथा च सिद्धाः च ॥] जीवाः आत्मानः त्रिविधाः त्रिप्रकारा भवन्ति । एके केचन बहिरात्मानः, बहिर्दव्यविषये शरीरपुत्रकलत्रादिचेतनाचेतनरूपे आत्मा येषां ते बहिरात्मानः । अन्तः अभ्यन्तरे शरीरादेर्भिनप्रतिभासमानः आत्मा द्वारा संसारको तिराजाये उसे तीर्थ कहते हैं । सो व्यवहार और निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रयसे सहित यह आत्मा ही सब तीर्थोंसे उत्कृष्ट तीर्थ है; क्योंकि यह आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यश्चारित्रमय रत्नत्रयरूप नौकामें बैठकर संसार रूपी समुद्रको पार कर जाता है। आशय यह है कि जिसके द्वारा तिरा जाये वह तीर्थ कहा जाता है, सो वह जीव रत्नत्रयको अपनाकर संसार समुद्रको तिर जाता है अतः रत्नत्रय तीर्थ कहलाया। किन्तु रत्नत्रय तो आत्माका ही धर्म है, आत्मासे अलग तो रनत्रय नामकी कोई वस्तु है नहीं । अतः आत्मा ही तीर्थ कहलाया । वह आत्मा संसारसमुद्रको खयंही नहीं तिरता किन्तु दूसरोंके भी तिरनेमें निमित्त होता है अतः वह सर्वोत्कृष्ट तीर्थ है ॥ १९१ ॥ अब दूसरी तरहसे जीवके भेद कहते हैं। अर्थ-जीव तीन प्रकारके हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । परमात्माके भी दो भेद हैं-अरहंत और सिद्ध ॥ भावार्थ-आत्मा तीन प्रकारके होते हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बाह्य द्रव्य शरीर, पुत्र, स्त्री वगैरहमें ही जिनकी आत्मा है अर्थात् जो उन्हें ही आत्मा समझते हैं वे बहिरात्मा हैं । जो शरीरसे भिन्न आत्माको जानते हैं वे अन्तरात्मा हैं । अर्थात् जो परम समाधिमें स्थित होकर शरीरसे भिन्न ज्ञानमय आत्माको जानते हैं वे अन्तरात्मा हैं । कहा भी है-जो परम समाधिमें स्थित होकर देहसे भिन्न ज्ञानमय परम आत्माको निहारता है वही पंडित कहा जाता है ॥ १॥ 'पर' अर्थात् सबसे उत्कृष्ट, 'मा' अर्थात् अनन्त चतुष्टय रूप अन्तरंग लक्ष्मी और समवसरण आदिरूप बाह्य लक्ष्मीसे विशिष्ट आत्माको परमात्मा कहते हैं। वे परमात्मा दो प्रकारके होते हैं-एक तो छियालीस गुण सहित परम देवाधिदेव अर्हन्त तीर्थकर और एक सम्यक्त्व आदि आठ गुण सहित अथवा अनन्त गुणोंसे युक्त और स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धिको प्राप्त हुए सिद्ध परमेष्ठी, जो लोकके अग्रभागमें विराजमान हैं ॥ १९२ ॥ अब बहिरात्माका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जो जीव मिथ्यात्वकर्मके उदयरूप परिणत हो, तीव्र कषायसे अच्छी तरह आविष्ट हो और जीव तथा देहको एक मानता हो, वह बहिरात्मा है ।। भावार्थ-जिसकी आत्मा मिथ्यात्वरूप परिणत हो, अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि तीव्र कषायसे जकड़ी हुई हो और शरीर ही आत्मा है ऐसा जो अनुभव करता है वह मूढ जीव बहिरात्मा है । गुण १गजीवो। २.तिवहा । कात्तिके. १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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