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________________ રદ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० १८९ परिमाणे कालेऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवतीति काललब्धिः । आदिशब्दात् द्रव्यं वज्रवृषभनाराचलक्षणम्, क्षेत्रं पञ्चदशकर्मभूमिलक्षणम्, भवः मनुष्यादिलक्षणः, भावः विशुद्धिपरिणामः, लब्धयः क्षायोपशमनविशुद्धिदेशना प्रायोग्याधःकरणापूर्वकरणानिवृत्तकरणलक्षणाः, ताभिर्युक्तः जीवः मोक्षं संसारविभुक्तिलक्षणं कर्मणां मोचनं मोक्षस्तं कर्मक्षयं च करोति विदधाति ॥ १८८ ॥ जीवो वि हवइ भुत्ता कम्म-फलं सो वि भुंजदे जम्हा । कम्म विवायं विविहं सो वि ये भुंजेदि संसारे ॥ १८९ ॥ 1 [ छाया - जीवः अपि भवति भोक्ता कर्मफलं सः अपि भुङ्क्ते यस्मात् । कर्मविपाकं विविधं सः अपि च भुनक्ति संसारे ॥ ] जीवः भोक्ता भवति व्यवहारनयेन शुभाशुभकर्मजनितसुखदुःखादीनां भोक्ता, यस्मात् सोऽपि जीवः कर्मफलं प्रमाण स्थितिका घात करता है और घातियाँ कर्मोंका लता और दारु रूप तथा अघातिया कर्मोंका नीम और कांजीर रूप अनुभाग शेष रहता है । इस कार्यको करनेकी योग्यताकी प्राप्तिको प्रायोग्य कहते हैं । इन चारों लब्धियोंके होनेपर भव्य जीव अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणको करता है। इन तीनों करणोंके होनेका नाम करण लब्धि है । प्रत्येक करणका काल अन्तर्मुहूर्त है । किसी जीवको अधः करण प्रारम्भ किये थोड़ा समय हुआ हो और किसीको बहुत समय हुआ हो तो उनके परिणाम विशुद्धतामें समान भी होते हैं इसीसे इसका नाम अधःप्रवृत्त करण है । जिसमें प्रति समय जीवोंके परिणाम अपूर्व अपूर्व होते हैं उसे अपूर्व करण कहते हैं । जैसे किसी जीवको अपूर्वकरण आरम्भ किये थोड़ा समय हुआ और किसीको बहुत समय हुआ तो उनके परिणाम एकदम भिन्न होते हैं। और जिसमें प्रति समय एक ही परिणाम हो उसे अनिवृत्ति करण कहते हैं । पहले अधःकरणमें गुणश्रेणि गुणसंक्रमण वगैरह कार्य नहीं होते, केवल प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धता बढती जाती है । अपूर्व करण में प्रथम समयसे लगाकर जबतक मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमोहनीय और सम्यक्मथ्यात्व - रूप परिणमाता है तब तक गुणश्रेणि, गुणसंक्रमण, स्थितिखण्डन और अनुभागखण्डन चार कार्य होते हैं । अनिवृत्तिकरणमें ये कार्य होते हैं । जब अनिवृत्तिकरणका बहुभाग वीतकर एक भाग शेष रह जाता है तो जीव दर्शन मोहका अन्तर करण करता है । विवक्षित निषेकोंके सब द्रव्योंका अन्य निषेकोंमें निक्षेपण करके उन निषेकोंका अभाव कर देनेको अन्तर करण कहते हैं । अनिवृत्ति करण समाप्त होते ही दर्शन मोह और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उपशम होनेसे जीव औपशमिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है । उसके बाद योग्य समय आनेपर कर्मोंको नष्ट करके मुक्त होजाता है ॥ १८८ ॥ अर्थ-यतः जीव कर्मफलको भोगता है इसलिए वही भोक्ता भी है । संसारमें वह अनेक प्रकार के कर्म विपाकको भोगता है । भावार्थ-व्यवहारनयसे जीव शुभ और अशुभ कर्मके उदयसे होनेवाले सुख दुःख आदिका भोक्ता है; क्योंकि वह ज्ञानावरण आदि पुद्गल कमौके फलको भोगता है । तथा वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके भेदसे पांच प्रकारके संसार में अशुभ कर्मोंके निम्ब, कांजीर, विष और हालाहल रूप अनुभागको तथा शुभकर्मों के गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृतरूप अनुभागको भोगता है । यह आत्मा संसार अवस्थामें अपने चैतन्य स्वभावको न छोड़ते हुए ही अनादि १ व सो विच । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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