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________________ -१८८] १०. लोकानुप्रेक्षा १२५ [छाया-जीवः भवति कर्ता सर्वकर्माणि करोति यस्मात् । कालादिलब्धियुक्तः संसार करोति मोक्ष च॥जीवः शुद्धनिश्चयनयेनादिमध्यान्तवर्जितः खपरप्रकाशकः अविनश्वरनिरुपाधिशुद्धचैतन्यलक्षणनिश्चय प्राणैः यद्यपि जीवति तथाप्यशुद्धन येनानादिकर्मबन्धवशादशुद्धद्रव्यभावप्राणैजीवति इति जीवः । तथा करोति कर्ता भवति शुभाशुभकर्मणो निष्पादक: स्यात् । कुतः । यस्मात् सर्वकर्माणि कुर्वते । व्यवहारनयेन घटपटलकुटशकटगृहहट्टलीपुत्रपौत्रासिमषिवाणिज्यादीन् सर्वकार्याणि, ज्ञानावरणादिशुभाशुभकर्माणि, शरीरत्रयस्य पर्याप्तीश्च करोति जीवः विदधाति । निश्चयनयेन निःक्रियटकोत्कीर्णज्ञायकैकखभावोऽय जीवः । तथानन्तचतुष्टयस्य कर्ता च । पुनः संसार कुणदि संसृतिं करोति द्रव्य १ क्षेत्र २ काल ३ भव ४ भाव ५ मेदभिन्नं पञ्चविधं विदधाति सृजति च । पुनः एवंभूतो जीवः कर्माविष्टः अर्धपुद्गल. चतुर्थ हो, भत्र मनुष्य पर्याय हो, और भावसे विशुद्ध परिणामवाला हो । तथा क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्यलब्धि और अधःकरण, अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण रूप पांच लब्धियोंसे युक्त होना चाहिये । ऐसा होनेपर वही जीव कोका क्षय करके संसारसे अथवा कर्मबन्धनसे छूट जाता है । जो जिये अर्थात् प्राणधारण करे उसे जीव कहते हैं । प्राण दो तरहके होते हैं-एक निश्चय प्राण और एक व्यवहार प्राण । जीवके निश्चय प्राण तो सत्ता, सुख, ज्ञान और चैतन्य हैं। और व्यवहार प्राण इन्द्रिय, बल, आयु, और श्वासोच्छ्रास हैं । ये सब कर्मजन्य हैं, संसारदशामें कर्मबन्धके कारण शरीरके संसर्गसे इन व्यवहार प्राणोंकी प्राप्ति होती है । और कर्मबन्धनसे छूटकर मुक्त होनेपर शरीरके न रहनेसे ये व्यवहार प्राण समाप्त होजाते हैं और जीवके असली प्राण प्रकट हो जाते हैं । यह जीव निश्चय नयसे अपने भावोंका कर्ता है क्योंकि वास्तवमें कोई भी द्रव्य पर भावोंका कर्ता नहीं हो सकता। किन्तु संसारी जीवके साथ अनादि कालसे कर्मोका संबंध लगा हुआ है । उन कर्मोंका निमित्त पाकर जीवके विकाररूप परिणाम होते हैं। उन परिणामोंका कर्ता जीव ही है इस लिये व्यवहारसे जीवको कोंका कर्ता कहा जाता है। सो यह संसारी जीव अपने अशुद्ध भावोंको करता है उन अशुद्ध भावोंके निमित्तसे नये कर्मोका बन्ध होता है । उस कर्मबन्धके कारण उसे चतुर्गतिमें जन्म लेना पड़ता है । जन्म लेनेसे शरीर मिलता है । शरीरमें इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियोंसे वह इष्ट अनिष्ट पदार्थोंको जानता है, उससे उसे राग द्वेष होता है । रागद्वेषसे पुनः कर्मबन्ध होता है । इस तरह संसाररूपी चक्रमें पड़े हुए जीवके यह परिपाटी तब तक इसी प्रकार चलती रहती है जब तक काल लब्धि नहीं आती । जब उस जीवके संसारमें भटकनेका काल अर्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण शेष रहता है तब वह सम्यक्त्व ग्रहण करनेका पात्र होता है । सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिये पांच लब्धियोंका होना जरूरी है । वे पांच लब्धियां हैं-क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करणलब्धि । इनमेंसे चार लब्धियां तो संसारमें अनेक बार होती हैं, किन्तु करण लब्धि भव्यके ही होती है और उसके होने पर सम्यक्त्व अवश्य होता है । अप्रशस्त ज्ञानावरणादि कर्मोंका अनुभाग प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता हुआ उदयमें आवे तो उसे क्षयोपशम लब्धि कहते हैं । क्षयोपशम लब्धिके होनेसे जो जीवके साता आदि प्रशस्त प्रकृतियोंके बन्धयोग्य धर्मानुरागरूप शुभ परिणाम होते हैं उसे विशुद्धि लंब्धि कहते हैं । छः द्रव्यों और नौपदार्थोका उपदेश करने वाले आचार्य वगैरहसे उपदेशका लाभ होना देशना लब्धि है। इन तीन लब्धियोंसे युक्त जीव प्रतिसमय विशुद्धतासे बर्धमान होते हुए जीवके आयुके सिवा शेष सात कोंकी स्थिति अन्तःकोषाकोड़ी मात्र शेष रहती है तब वह उसमेंसे संख्यात हजार सागर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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