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________________ १२४ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १८८देहयोर्भेदं मेदभिन्नं पृथक्त्वं न बुध्यते न जानाति । इति किम्। राजाई, अहे राजा तृपोऽहं पृथ्वीपालकोऽहम् । मृत्योऽई, च पुनः, अहमेव मृत्यः कर्मकरोऽहं। अहमेव श्रेष्ठी। च पुनः, अहमेव दुर्बलः निःखोऽहं वा कृशीभूतशरीरोऽहम् । अहमेव बलिष्ठः बलवान् बलवत्तरशरीरोऽहम् । इति एकत्वं परिणतो मिथ्यात्वं प्राप्तो बहिरात्मा जीवः जीवशरीरयोर्भेदं पृथक्त्वं भिन्नं न जानातीत्यर्थः॥ तथा योगीन्द्रदेवैः दोधकपञ्चकेन मिथ्यात्वपरिणामेन कृत्वा बहिरात्मात्मनि योजयतीति खस्वरूपं निरूप्यते। "हउ गोरउ हर सांवल हउं जि विभिण्णउ वण्णु । हर्ड तणुअंगउं थूल हउँ एहउ मूढउ मण्णु ॥१॥ हउं वरु बंभणु वइसु हउं खित्तिउ हउं सेसु । पुरिसु णउंसउ इस्थि हर्ष मण्णइ मूलु विसेसु ॥२॥ तरुणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ देख्छु । खवणउ वंदउ सेवडउ मूठउ मण्णइ सम्वु ॥३॥ जणणी जणणु वि कंत घरु पुत्त वि मित्तु वि दन्छु । मायाजाल वि अप्पणउं मूढउ मण्णइ सव्वु ॥४॥ दुक्खहं कारणि जे विसय ते सुहहेउ रमेइ । मिच्छाइट्रिउ जीवडउ एत्थु ण काई करेइ ॥५॥" इति मूढात्मा मिध्यादृष्टिः जीवः सर्वम् एवं मन्यते ॥१८॥ जीवकर्तृत्वादिधर्मान् गाथचतुष्टयेनाह जीवो हवेइ कत्ता सव्वंकम्माणि कुव्वदे जम्हा । कालाइ-लद्धि-जुत्तो संसारं कुणइ मोक्खं च ॥ १८८ ॥ वाला जीव दोनोंके भेदको नहीं जानता। भावार्थ-मैं राजा हूं, मैं नौकर हूं, मैं सेठ हूँ, मैं दुर्बल हूं, मैं बलवान् हूं इस प्रकारसे लोग शरीरको ही आत्मा मानते हैं क्योंकि वे मिथ्यादृष्टि हैं, अतः वे दोनोंके भेदको नहीं समझते । 'मैं राजा हूं' इत्यादि जितने भी विकल्प हैं वे सब शरीरपरक ही हैं; क्योंकि आत्मा तो न राजा है, न नौकर है, न सेठ है, न गरीब हैं, न दुबला है और न बलवान् हैं । बहिर्दृष्टि लोग शरीरको ही आत्मा मानकर ये विकल्प करते हैं और यह नहीं समझते कि आत्मा इस शरीरमें रमा होकर भी इससे जुदा है ॥ १८७ ॥ अब चार गाथाओंसे जीवके कर्तृत्व आदिका कथन करते हैं । अर्थ-यतः जीव सब कोंको करता है अतः वह कर्ता है । वह स्वयं ही संसारका कर्ता है और काललब्धि आदिके मिलनेपर स्वयं ही मोक्षका कर्ता है ॥ भावार्थ-यद्यपि शुद्ध निश्चय नयसे आदि मध्य और अन्तसे रहित तथा खं और परको जानने देखने वाला यह जीच अविनाशी निरुपाधि चैतन्य लक्षण रूप निश्चय प्राणसे जीता है तथापि अशुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा अनादिकालसे होनेवाले कर्मबन्धके कारण अशुद्ध द्रव्यप्राण और भावप्राणोंसे जीता है इसीलिये उसे जीव कहते हैं । वह जीव शुभाशुभ कर्मोंका कर्ता है क्योंकि वह सब काम करता है । व्यवहार नयसे घट, वस्त्र, लाठी, गाड़ी, मकान, प्रासाद, स्त्री, पुत्र, पौत्र, असि, मषि, व्यापार आदि सब कायोंको, ज्ञानावरण आदि शुभाशुभ कर्मोको, और औदारिक वैक्रियिक और आहारक शरीरोंकी पर्याप्तियोंको जीव करता है । और निश्चय नयसे टांकीसे पत्थरमें कडेरे हुए चित्रामकी तरह निश्चल एक ज्ञायक खभाववाला यह जीव अपने अनन्त चतुष्टय रूप स्वभावका कर्ता है । यही जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके भेदसे पश्च परावर्तन रूप संसारका कर्ता है । यही काँसे बद्ध जीव जब संसार परिभ्रमणका काल अर्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण शेष रह जाता है तब प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके योग्य होता है इसे ही काल लब्धि कहते हैं । आदि शब्दसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव लेना चाहिये। सो द्रव्य तो वज्रवृषभ नाराच संहनन होना चाहिये । क्षेत्र पन्द्रह कर्मभूमियोंमें से होना चाहिये, काल १ग जाल। २ग कारण जे मि विसया । ३ म हवेदि। ४ ल म स कुणाद, ग कुणद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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