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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १५८संखिज-गुणा देवा अंतिम-पंडलादु आणदं जावं। तत्तो असंख-गुणिदा सोहम्मं जाव पडि-पडलं ॥१५८ ॥ [छाया-संख्येयगुणाः देवाः अन्तिमपटलात् आनतं यावत् । ततः असंख्यगुणिताः सौधर्म यावत् प्रतिपटलम् ॥] अन्तिमपटलात् पञ्चानुत्तरपटलात्, आनतस्वर्ग यावत् आनतखर्गयुगलपर्यन्तं संख्यातगुणा देवा भवन्ति । तत्रान्तिमपटले पल्यासंख्यातेकभागमात्रा अहमिन्द्रसुराः पु पञ्चानुत्तरे नवानुत्तरेषु ऊर्ध्वग्रैवेयकत्रये मध्यमग्रैवेयकत्रये अधोवेयकत्रये अच्युतारणयोः प्राणतानतयोश्च सर्वत्र सप्तसु स्थानेषु प्रत्येकं देवानां पल्यासंख्यातत्वेऽपि संख्यातगुणत्वसंभवात् । तत्तो ततः आनतपटलात् अधोऽधोभागे सौधर्मवर्गपर्यन्तं प्रतिपटलं. पटलं पटलं प्रति, असंख्यातगुणत्वात् । तेइन्द्रिय । दोइन्द्रिय | पञ्चेन्द्रिय | चौइन्द्रिय 3८४२४ । ६१२० =५८६४ =५८३६ ४।४।६५६१ ४।४।६५६१ ४।४५६५६१/ ४।४१६५६१ प्रमाण पूर्वोक्त सामान्य त्रस जीवोंके प्रमाणमें से इस पर्याप्त त्रस जीवोंके प्रमाणको घटानेपर अपर्याप्त त्रस जीवोंके प्रमाणकी संदृष्टि इस प्रकार होती है दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय ५।६१२० - ५८४२४ । ५।५८३६ - ५/५८६४ प्रमाण %D८४२४१७] =६१२०१७ =५८६४७] =५८३६१७ ४।४।६५६१ ४।४।६५६१, ४।४।६५६१/ ४।४।६५६१/ इसका खुलासा इस प्रकार है। सामान्य त्रस राशि तो मूलराशि है और पर्याप्त त्रस राशि ऋणराशि है । इन दोनों राशियों में जगत्प्रतर और उसमें प्रतरांगुल और चार गुने पैंसठ सौ इकसठ का भाग ना४६५६१ समान है । अतः इसको मूल राशिका गुणाकार किया । और 'भागहारका भागहार भाज्यका गुणकार होता है इस नियमके अनुसार मूल राशिमें जो भागहार प्रतरांगुल, उसका भागहार असंख्यात है उसको मूलराशिके गुणकारका गुणकार कर दिया । और ऋणराशिमें जो पांचका अंक है उसको ऋणराशिके गुणकारका गुणकार करदिया। ऐसा करनेसे जो स्थिति हुई वही ऊपर संदृष्टि के द्वारा बतलाई है ॥ १५७ ॥ अर्थ-अन्तिम पटलसे लेकर आनत वर्ग तक देव संख्यातगुने हैं । और उससे नीचे सौधर्म स्वर्ग पर्यन्त प्रत्येक पटलमें असंख्यात गुने हैं ॥ भावार्थअन्तिम पटल अर्थात् पश्च अनुत्तर विमानसे लेकर आनत खर्ग युगल तक संख्यातगुने देव हैं । उनमें से अन्तिम पटल में पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण अहमिन्द्र देव हैं । तथा पांच अनुत्तर, नौ अनुदिश, तीन ऊर्ध्व अवेयक, तीन मध्य प्रैवेयक, तीन अधो प्रैवेयक, अच्युत आरण, और प्राणत आनत इन सातों स्थानोंमेंसे प्रत्येकमें यद्यपि देवोंका प्रमाण पत्यके असंख्यातवें भाग है फिर भी एक स्थानसे दूसरे स्थानमें संख्यातगुना संख्यातगुना प्रमाण होना संभव है । अर्थात् सामान्य रूपसे उक्त सातों स्थानोंमें यद्यपि देवोंका प्रमाण पत्यके असंख्यातवें भाग है, किन्तु फिर भी ऊपरसे नीचेकी ओर एक स्थानसे दूसरे स्थानमें संख्यातगुने संख्यातगुने देव हैं । आनत पटलसे लेकर १ पटलादु, स पढलादो, ग पटलादो । २ लग आरणं, स आणदे । ३ ब जाम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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