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________________ -१५८] १०. लोकानुप्रेक्षा तत्संख्या गोम्मटसारोक्ता लिख्यते । शतारसहस्रारखर्गयुगले निजचतुर्थमूलेन भाजितजगच्छ्रेणिप्रमिताः देवा भवन्ति । ततः शुक्रमहाशुक्रवर्गयुगले निजपञ्चममूलेन भाजितजगच्छ्रेणिमात्रा देवाः भवन्ति । ततः लान्तवकापिष्टवर्गयुगले निजसप्तममूलेन भाजितजगच्छ्रेणिप्रमिता देवाः भवन्ति । ततः ब्रह्मब्रह्मोत्तरखर्गयुगले निजनवममूलेन भक्तजगच्छ्रेणिमात्रा देवाः स्युः । ततः सनत्कुमारमाहेन्द्रस्वर्गयुगले निजैकादशमूलेन भाजितजगच्छ्रेणिमात्रा देवाः सन्ति । ततः सौधर्मेशानखर्गयुगले श्रेणिगुणितघनाडुलतृतीयमूलप्रमिता देवाः भवन्ति -३ । घनाङ्गुलतृतीयमूलेन गुणितजगच्छेणिमात्रा देवाः सौधर्मशानजा उत्कृष्टेन भवन्तीत्यर्थः । सर्वार्थसिद्धजाहमिन्द्राः त्रिगुणाः । तिगुणा सत्तगुणा वा सव्वट्ठा माणुसीपमाणादो ॥१५८॥ 64 नीचे नीचे सौधर्म स्वर्ग तक प्रत्येक पटलमें देव असंख्यातगुने असंख्यात गुनेहैं । यहाँ गोम्मटसार में जो देवोंकी संख्या बतलाई है [घणअंगुलपढमपदं तदियपदं सेढिसंगुणं कमसो । भवणो सोहम्मदुगे देवाणं होदि परिमाणं ॥ १६१ ॥ तत्तो एगारणव सग पण चउ णियमूल भाजिदा सेढी । पल्ला संखेजदिमा पत्तेयं आणदादि सुरा ॥ १६२ ॥" गो०] वह लिखते हैं-जगतश्रेणीके चौथे वर्गमूल का जगतश्रेणीमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे, उतने देव शतार और सहस्रार खर्गमें हैं । जगतश्रेणीके पांचवे वर्गमूलका जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतने देव शुक्र और महाशुक्र वर्गमें हैं। जगतश्रेणिके सातवें वर्गमूलसे जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतने देव लान्तव और कापिष्ठ खर्गमें हैं। जगतश्रेणिके नौवे वर्गमूलसे जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जितना लब्ध आवे उतने देव ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें हैं। जगतश्रेणिके ग्यारहवें वर्गमूलसे जगतश्रेणिमें भाग देनेसे जितना लब्ध आवे उतने देव सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गमें हैं। और सौधर्म तथा ऐशान वर्गमें घनांगुलके तीसरे वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण देवराशि है । इस तरह ऊपरके वर्गोंसे नीचेके वर्गों में देवराशिका प्रमाण उत्तरोत्तर अधिक अधिक है । यह प्रमाण उत्कृष्ट है । अर्थात् अधिकसे अधिक इतनी देवराशि उक्त वर्गों में होसकती है। सौधर्म और ऐशान वर्गमें देवराशिकी संदृष्टि - ३ ऐसी है । यहाँ- यह जगतश्रेणीका चिह्न है। और घनांगुल का तृतीय वर्गमूलका चिह्न ३ है । तो जगतश्रेणीको धनांगुलके तृतीय वर्गमूलसे गुणा करने पर-३ ऐसा होता है यही सौधर्म युगलमें देवोंका प्रमाण है । सनत्कुमार माहेन्द्र युगलसे लेकर पाँच युगलोंमें देवराशिकी संदृष्टि क्रमसे इस प्रकार है , . . ५ । जिसका आशय यह है कि जगतश्रेणिको क्रमसे जगतश्रेणिके ही ग्यारहवें नौवें, सातवें, पाँचवें और चौथे वर्गमूलका भाग दो । तथा आनतादि दो युगल, ३ अधोत्रैवेयक, ३ मध्यमवेयक, ३ उपरिम अवेयक, ९ अनुदिश विमान और ५ अनुत्तर विमान इन सात स्थानोंमें से प्रत्येकमें पल्यके असंख्यातवें भाग देवराशि है । उनकी संदृष्टि पु ऐसी है । ऊपर जो संदृष्टि दी हैं बह पाँच अनुत्तरसे लेकर सौधर्मयुगल तक की है । सो ऊपरवाली पंक्तिके कोठोंमें तो देवोंका प्रमाण लिखा है । और नीचेवाली पंक्तिमें अनुत्तर वगैरह का संकेत है । सो पाँच अनुत्तरों का संकेत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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