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________________ १०. लोकानुप्रेक्षा दोइन्द्रिय । तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय =५८३२ ४।४।६५६१ =५८३२ ४१४१६५६१ ४।४।६५६१ =५८३२ ४।४।६५६१ समभाग =२५९२ देयभाग | ४।४।६५६१ =२८८ ४।४।६५६१ =३२ ४१४६५६१ ४१४६५६१ इस समभाग और देयभागोंको जोड़नेसे दोइन्द्रिय आदि जीवोंके प्रमाणकी संदृष्टि इस प्रकार होती है दोइन्द्रिय | तेइन्द्रिय | चौइन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय =८४२४ =६१२० -५८६४ । =५८३६ प्रमाण | ४४६५६१/ ४।४।६५६१ ४।४।६५६१/ ४४।६५६१ अब पर्याप्त प्रस जीवोंके प्रमाणकी संदृष्टिका खुलासा करते हैं-संख्यातका चिह्न पांचका अंक हैं । संख्यातसे भाजित प्रतरांगुलका भाग जगत्प्रतरमें देनेसे पर्याप्त त्रस जीवोंका प्रमाण आता है । वह इस प्रकार है । इसमें पूर्वोक्त प्रकारसे आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देकर बहुभाग निकालना चाहिये और बहुभागके चार समान भाग करके तेइन्द्रिय, दोइन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और चौइन्द्रियको देना चाहिये । शेष एक भागमेंसे बहुभाग क्रमसे तेइन्द्रिय, दोइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रियको देना चाहिये तथा बाकी बचा एक भाग चौइन्द्रियको देना चाहिये । उनकी संदृष्टि इस प्रकार होती है तेइन्द्रिय दोइन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय | चौइन्द्रिय समभाग ४/९/४ ४/९/४ ४।९।४ ४॥९/४ देयभाग ४।९।९. ४।९।९।९ १४।९।९।९।९/ ४।९।९।६९ इनको पूर्वोक्त प्रकारसे समच्छेद करके मिलानेपर पर्याप्त त्रस जीवोंके प्रमाणकी संदृष्टि इस प्रकार होती है कार्तिके० १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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