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________________ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १३८६.१२ + अ. सू. ६०१२ + अ. बा. ६.१२ + ते. सू. ६०१२ + ते. बा. ६.१२ + वा. सू. ६०१२ + वा बा. ६०१२+ सा. सू. ६.१२+ सा. बा. ६०१२ + प्र.व. ६०१२ + द्वि. ल. ८०+ त्रि. ल. ६०+ च. ल. ४० + पं. ल. २४ [ = ६६३३६ ] ॥ प्र. [म.] १ : इ. [म.] ६६३३६ : : फ. [उ.] * = [ल. उ.] ३६८५३ । [प्र. उ.] पर : [इ. उ.] ३६८५३:: [फ. म.] १ = [ल. म.] ६६३३६ । [प्र. म.] ६६३३६ : [इ. म.] १.[फ. उ.] ३६८५ % [ल. उ.] ।[प्र. उ.] ३६८५३: [इ. उ.] :: [फ.] मरणलब्ध ६६३३६ % [ल. म.] १॥ मुहूर्तस्य उ. ३७७३, अं. ३६८५३१, १ मरण ल. उ. पर। [प्र. = प्रमाणराशी, इ. = इच्छाराशी, फ. = फलराशी, ल. = लब्धराची = उत्तर, अं. = अंतर्मुहूर्त, उ. = उच्छ्वास, म. = मरण। यहां मूलप्रतिकी संदृष्टी आधुनिक त्रैराशिक पद्धतीसे ऊपर लिखी गई है।] ॥ १३ ॥ अथ पर्याप्तिलब्ध्यपर्याप्योः पर्याप्तिसंख्यां कथयति लद्धियपुण्णे पुण्णं पज्जत्ती एयक्ख-वियल-सण्णीणं । चदु-पण-छक्कं कमसो पज्जत्तीएं वियाणेह ॥ १३८॥ [छाया-लब्ध्यपूणे पूर्ण पर्याप्तिः एकाक्षविकलसंज्ञिनाम्। चतुःपञ्चषट्कं क्रमशः पर्याप्तीः विजानीहि ॥] लब्ध्यपर्याप्तके जीवे पर्याप्स्यपूर्ण पर्याप्तम् । लब्ध्यपर्याप्तकजीवानां पर्याप्या व्याख्यानं परिपूर्ण जातम् । एयक्खादि इस तरह यदि वह निरन्तर एकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तमें ही बार बार जन्म लेता है तो ६६१३२ वारसे अधिक जन्म नहीं ले सकता । इसी तरह दो इन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें ८० बार, तेइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें ६० बार, चौइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें ४० बार और पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें २४ बार, उसमें मी मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकमें आठ बार, असंज्ञी पञ्चन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकमें आठ बार, और संज्ञी पश्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकमें आठ बार इस तरह मिलकर पञ्चन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकमें चौबीस बार निरन्तर जन्म लेता है । इससे अधिक जन्म नहीं ले सकता । एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके निरन्तर क्षुद्र भवोंकी संख्या जो ६६१३२ बतलाई है उसका विभाग खामिकी अपेक्षासे इस प्रकार है-पृथिवीकाय, जलकाय, तेजकाय, वायुकाय और साधारण वनस्पतिकाय ये पांचों बादर और सूक्ष्मके भेदसे १० होते हैं। इनमें प्रत्येक वनस्पतिको मिलानेसे ग्यारह होते हैं । इन ग्यारह प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तकोंमेंसे एक एक मेदमें ६०१२ निरन्तर क्षुद्र भव होते हैं । अर्थात् लब्ध्यपर्याप्त जीव जो एकेन्द्रियपर्यायमें ६६१३२ भव धारण करता है उन भवोंमें से ६०१२ भव पृथिवीकायमें धारण करता है, ६०१२ भव जलकायमें धारण करता है, ६०१२ भव तेजकायमें धारण करता है । इस तरह एकेन्द्रियके ग्यारहों भेदोंमें ६०१२, ६०१२ बार जन्म लेता और मरता है । इस प्रकार एक अन्तर्मुहूर्तकालमें लब्ध्यपर्याप्तक जीव ६६३३६ बार जन्म लेता है, और उतनी ही बार-मरता है ॥ १३७ ॥ गाथा १३७ की संदृष्टिका खुलासा इस प्रकार है- (१) पृथिवीकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२+(२) पृथिवीकायिक बादरके भव ६०१२+(३) जलकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२ (४) जलकायिक बादरके भव ६०१२+(५) तेजकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२+ (६) तेजकायिक बादरके भव ६०१२+(७) वायुकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२+(८) वायुकायिक बादरके भव ६०१२+(९) साधारणकायिक सूक्ष्मके भव ६०१२ (१०) साधारणकायिक बादरके भव ६०१२(११) प्रत्येक. वनस्पतिकायिकके भव ६०१२ ६६१३२+दोइन्द्रिय लब्ध्य १ब पज्जत्तीअ (१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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