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________________ -१३९] १०. लोकानुप्रेक्षा एकेन्द्रिय विकलसंज्ञिनां क्रमशः चदुपणछकं चतस्रः, पञ्च, षट् च पर्याप्तीर्जानीहि। एकेन्द्रियजीवानाम् आहारशरीरेन्द्रियोच्छासपर्याप्तयश्चतस्रो ४ भवन्ति । द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवानाम् आहारशरीरेन्द्रियोडासभाषापर्याप्तयः पञ्च स्युः ५। संज्ञिपञ्चेन्द्रियजीवानाम् आहारशरीरेन्द्रियोच्छ्वासभाषामनःपर्याप्तयः षट् ६ सन्ति ।। १३८ ॥ अय दश प्राणान् लक्षयति मण-वयण-काय-इंदिय-णिस्सासुस्सास-आउ-उदयाणं'। जेसिं जोए जम्मदि मरदि' विओगम्मि ते वि दह पाणा ॥१३९॥ [छाया-मनोवचनकायेन्द्रियनिःश्वासोच्छ्रासायुरुदयानाम्। येषां योगे जायते म्रियते वियोगे ते अपि दश प्राणाः॥ येषां मनोवचनकायेन्द्रियनिःश्वासोच्छ्रासायुरुदयानां जोए संयोगे जम्मदि जीवो जायते उत्पद्यते, येषां वियोगे सति जीवो म्रियते जीवितव्यरहितो भवति, तेऽपि दश प्राणाः कथ्यन्ते । इत्थंभूतैर्दशभिर्द्रव्यप्राणैः यथासंभवं जीवति पर्याप्तकके ८०+तेइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके ६०+चौइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके ४०+पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके २४-६६३३६॥ ये ६६३३६ भव एक अन्तर्मुहूर्तमें होते हैं। १)-अतः यदि एक भवका काल एक उच्छासका अट्ठारहवां भाग है तो ६६३३६ भवका काल कितने उच्छास होगा? ऐसा त्रैराशिक करने पर ६६३३६ में 1 का भाग देनेसे लब्ध ३६८५३ होता है सो इतने उच्छासमें ६६३३६ भव लब्ध्यपर्याप्तक जीव धारण करता है। एक मुहूर्तमें ३७७३ उच्छ्रास होते हैं। अतः ३६८५३ उच्छास एक एक अन्तमुहूर्तमें हुआ। २) यदि उच्छ्रासमें १ भव धारण करता है तो ३६८५३ उच्छासमें कितने भव धारण करेगा ऐसा त्रैराशिक करनेपर ३६८५३ में १८ का गुणा करनेसे ६६३३६ भव होते हैं । ३) यदि छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस भवका काल ३६८५३ उच्छ्वास है तो एक भवका काल कितना है ऐसा त्रैराशिक करने पर ६६३३६ से ३६८५३ उच्छासमें भाग देनेसे एक भवका काल ३४ उच्छास आता है । ४)-यदि ३६८५३ उच्छासमें ६६३३६ भव धारण करता है तो १८ उच्छ्रासमें कितने भव धारण करेगा? ऐसा त्रैराशिक करने पर उत्तर एक भव आता है । अब पर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके पर्याप्तियोंकी संख्या कहते हैं । अर्थ-लब्ध्यपर्याप्त जीव तो अपर्याप्तक होता है अतः उसके पर्याप्ति नहीं है । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवके क्रमसे चार, पांच और छः पर्याप्तियां जानो ॥ भावार्थ-लब्ध्यपर्याप्तक जीवके किसी पर्याप्तिकी पूर्ति नहीं होती; क्योंकि वह अपर्याप्तक है । अतः लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके पर्याप्तिका कथन इतनेसे ही पूर्ण हो जाता है । पर्याप्तक जीवोंमें एकेन्द्रियके आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, उच्छासपर्याप्ति ये चार पर्याप्तियां होती हैं। दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके आहार, शरीर, इन्द्रिय, उच्छास और भाषा ये पांच पर्याप्तियां होती हैं । संज्ञी पञ्चन्द्रिय जीवोंके आहार, शरीर, इन्द्रिय, उच्छास, भाषा और मन ये छ: पर्याप्तियां होती हैं ॥ १३८ ॥ पर्याप्तियोंका कथन करके अब प्राणोंका कथन करते हैं । अर्थ-जिन मन, वचन, काय, इन्द्रिय, श्वासोच्छास और आयुके उदयके संयोगसे जीव जन्मलेता है और वियोग होनेसे मर जाता है उन्हें प्राण कहते हैं । वे दस हैं भावार्थ-जिनके संयोगसे जीवन और वियोगसे मरण होता है उन्हें प्राण कहते हैं वे प्राण दस हैं-मनोबल, वचनबल, कायबल, पांच इन्द्रियां, श्वासोच्छ्वास और आयु । इन दस द्रव्य प्राणों में से जो १ ल म ग आउरुदयाणं, स आउस हि याणं । २ ब ग मरिदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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