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________________ -१३८] १०. लोकानुप्रेक्षा प्राप्नोति न च समाप्तिं नयति, परिपूर्णतां न नयति । च पुनः । उस्सासद्वारसमे भागे उच्छासाष्टादशैकभागमात्रे म्रियते स लब्ध्यपर्याप्तकः । तथा गोम्मटसारे प्रोक्तं च । 'उदये दु अपुण्णस्स य सगसगपजत्तियं ण णिवदि। अंतोमुहुत्तमरणं लद्धियपज्जत्तगो सो दु॥' अपर्याप्तनामकर्मोदये सत्येकेन्द्रियविकलचतुष्कसंज्ञिजीवाः स्वखचतुःपञ्चषट्पर्याप्तीने निष्ठापयन्ति । उच्छासाष्टादशैकट भागमात्रे एवान्तर्मुहूर्ते म्रियन्ते ते जीवा लब्ध्यपर्याप्तका इत्युच्यन्ते । लब्ध्या खस्य पर्याप्तिनिष्ठापनयोग्यतया अपर्याप्ता अनिष्पन्नाः लब्ध्यपर्याप्ता इति निरुक्तेः। अथैकेन्द्रियादिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तलन्थ्यपर्याप्तकजीवेषु सर्वनिरन्तरजन्ममरणकालप्रमाणम्। गोम्मटसारोक्तगाथात्रयमाह । 'तिणि सया छत्तीसा छावट्टिसहस्सगाणि मरणाणि । अंतोमुहुत्तकाले तावदिया चेव खुद्दभवा ॥ १॥ अन्तर्मुहूर्तकाले क्षुद्राणां लब्ध्यपर्याप्तानां मरणानि षट्त्रिंशत्रिशताधिकषट्षष्टिसहस्राणि ६६३३६ संभवन्ति । तथा तद्भवा अपि तावन्तः ६६३३६ एव । 'सीदी सट्ठी चालं वियले चउवीस होंति पंचक्खे। छावट्टि च सहस्सा सयं च बत्तीसमयक्खे ॥२॥ ते निरन्तरक्षुद्रभवाः लब्ध्यपयोप्तेषु एकेन्द्रियेषु द्वात्रिंशदप्रशताधिकषट्षष्टिसहस्राणि भवन्ति ६६१३२ । तद्यथा । कश्चिदेकेन्द्रियो लब्ध्यपर्याप्तकः तद्भवप्रथमसमयादारभ्योच्छ्वासाष्टादशैकभागमात्रां खस्थितिं जीवित्वा पुनः तदेकेन्द्रिये एवोत्पन्नः तावन्मात्रां खस्थिति जीवितः । एवं निरन्तरमेकेन्द्रियो लब्ध्यपर्याप्तकभवानेव बहुवार गृह्णाति तदा उक्तसंख्यां ६६१३२ नातिकामति । एवमेव द्वीन्द्रिये लब्ध्यपर्याप्तके अशीतिः ८०, त्रीन्द्रिये लब्ध्यपर्याप्तके षष्टिः ६०, चतुरिन्द्रिये लब्ध्यपर्याप्तके चत्वारिंशत् ४०, पञ्चेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तके चतुर्विंशतिः २४, तत्र तु मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकेऽष्टौ ८, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त. 1८, संज्ञिपञ्चेन्द्रिये लब्ध्यपर्याप्तकेऽष्टौ ८, मिलित्वा पञ्चेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तके चतुर्विशतिर्भवन्ति २४। अथैकेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकस्य निरन्तरक्षुद्रभवसंख्यां स्वामिमेदान् आश्रित्य विभजति । 'पुढविदगागणिमारुदसाहारणथूलसुहमपत्तेया। एदेसु अपुण्णेसु य एक्कक्के बार खं छक्कं ॥ ३ ॥ पृथिव्यप्तेजोवायुसाधारणवनस्पतयः पञ्चापि प्रत्येक बादरसूक्ष्ममेदेन दश १० तथा प्रत्येकवनस्पतिश्चेत्येतेष्वेकादशसु लब्ध्यपर्याप्तकमेदेष्वेकैकस्मिन् मेदे प्रत्येकं द्वादशोत्तरषट्सहस्रनिरन्तरक्षुद्रभवा भवन्ति ६०१२। लब्ध्यपर्याप्तानां मरणानि भवा ६६३३६ ॥ पृ. सू. ६०१२ + पृ. बा. कहते हैं ॥ भावार्थ-वह जीव लब्ध्यपर्याप्तक है जो एक भी पर्याप्तिको पूर्ण नहीं करता और एक श्वासके अट्ठारह भागोंमेंसे एक भागमें ही मर जाता है । गोम्मटसारमें भी कहा है-अपर्याप्त नाम - कर्मका उदय होनेपर जीव अपनी अपनी पर्याप्तिको पूर्ण नहीं करता और अन्तर्मुहूर्तमें मर जाता है। उसे लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं। अर्थात् एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और संज्ञी पश्चेन्द्रिय जीवोंके अपर्याप्तनामकर्मका उदय होनेपर वे जीव अपनी अपनी चार, पांच या छः पर्याप्तियोंमेंसे एक मी पर्याप्तिको पूर्ण नहीं कर पाते । तथा श्वासके अट्ठारहवें भाग प्रमाण अन्तमुहूर्तकालमें ही मर जाते हैं । उन जीवोंको लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं । क्योंकि लब्धि अर्थात् अपनी अपनी पर्याप्तियोंको पूर्ण करनेकी योग्यतासे जो अपर्याप्त अर्थात् अपूर्ण हैं वे लब्ध्यपर्याप्त हैं-ऐसी लब्ध्यपर्याप्त शब्दकी व्युत्पत्ति है । एकेन्द्रियसे लेकर संज्ञी पश्चेन्द्रिय पर्यन्त लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें निरन्तर जन्ममरणका काल गोम्मटसारमें तीन गाथाओंके द्वारा इस प्रकार कहा है-'एक अन्तर्मुहूर्त कालमें क्षुद्र अर्थात् लब्ध्यपर्याप्त जीव ६६३३६ बार मरता है और ६६३३६ बार ही जन्म लेता है। १। उन छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस क्षुद्र भवोंमें से ६६१३२ बार तो लब्ध्यपर्याप्त एकेन्द्रियोंमें जन्म लेता है । जिसका खुलासा इस प्रकार है-कोई एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने भवके प्रथम समयसे लेकर उच्छासके अट्ठारहवें भाग प्रमाण अपनी आयु पूरी करके पुनः एकेन्द्रिय पर्यायमें ही उत्पन्न हुआ । और उच्छासके अट्ठारहवें भाग काल तक जीकर मरगया और पुनः एकेन्द्रियपर्यायमें उत्पन्न हुआ। १ सर्वत्र 'गोमट्ट' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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