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________________ ७४ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १३७[छाया-पर्याप्तिं गृह्णन् मनःपर्याप्तिं न यावत् समाप्नोति । तावन्निवृत्त्यपूर्णः मनःपूर्णः भण्यते पूर्णः ॥] जीवः पर्याप्ति गृहन् सन् यावत्कालं मनःपर्याप्तिं न समणोदि न समाप्तिं नयति, परिपूर्णतां न यातीत्यर्थः, ता तावत्काल निवृत्त्यपर्याप्तको जीवः भण्यते । मनःपूर्णः मनःपर्याप्तिपूर्णतां प्राप्तो जीवः पूर्णः पर्याप्तको भण्यते। केचन नेमिचन्द्राचार्यादयः पर्याप्तनिर्वत्त्यपर्याप्तकालविभागमीदृशं कथयन्ति । तथा हि । 'पजत्तस्स य उदये णियणियपज्जत्तिणिट्रिदो होदि । जाव सरीरमपुण्ण णिव्वत्तियपुण्णगोताव॥' पर्याप्तनामकर्मोदये सत्येकेन्द्रियविकलचतुष्कसंज्ञिजीवाः निजनिजचतुःपञ्च षट्पयाप्तिभिर्निष्ठिताः निष्पन्नशक्तयो भवन्ति । यावत् शरीरपर्याप्तिन निष्पना तावत्ते च जीवाः समयोनशरीरपर्याप्तिकालान्तमुहूर्तपर्यन्तं । २००५ । निर्वृत्त्यपर्याप्ता इत्युच्यन्ते । निर्वृत्त्या शरीरनिष्पत्त्या अपर्याप्ता अपूर्णा निर्वृत्त्यपर्याप्ता इति निर्वचनात् ॥ १३६ ॥ अथलब्ध्यपर्याप्तरूपं निरूपयति उस्सासदारसमे भागे जो मरदि ण य समाणेदि। एको वि य पज्जत्ती लद्धि-अपुण्णो हवे सो दु ॥ १३७॥ [छाया-उच्छ्वासाष्टादशमे भागे यः म्रियते न च समाप्नोति । एकाम् अपि पर्याप्तिं लब्ध्यपूर्णः भवेत् स तु ॥] तु पुनः, स जीवः लब्ध्यपर्याप्तको भवेत् । स कः । यो जीवः एका वि य पजत्ती एकामपि पर्याप्तिं न च समाणेदि न च कार्यरूप पर्याप्ति है । अथवा यह कहना चाहिये कि यह उस शक्तिका कार्य है । इसी तरह छहों पर्याप्तियोंमें समझ लेना चाहिये ॥ १३५ ॥ अब निवृत्त्यपर्याप्त और पर्याप्तका काल कहते हैं । अर्थजीवपर्याप्तिको ग्रहण करते हुए जबतक मनःपर्याप्तिको समाप्त नहीं करलेता तबतक निर्वृत्त्यपर्याप्त कहाजाता है । और जब मनःपर्याप्तिको पूर्ण कर लेता है. तब पर्याप्त कहा जाता है ॥ भावार्थपर्याप्तिको ग्रहण करता हुआ जीव जबतक मनःपर्याप्तिको पूर्ण नहीं कर लेता तबतक निर्वृत्त्यप र्याप्तक कहा जाता है । और जब मनःपर्याप्तिको पूर्णकर लेता है तब पूर्ण पर्याप्तक कहा जाता है । किन्तु नेमिचन्द्र आदि कुछ आचार्य पर्याप्त और निर्वृत्त्यपर्याप्तके कालका विभाग इस प्रकार बतलाते हैं-'पर्याप्त नामकर्मका उदय होनेपर जीव अपनी अपनी पर्याप्तियोंसे निष्ठित होता है। जबतक उसकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तबतक वह निर्वृत्त्यपर्याप्त कहा जाता है । आशय यह है कि निवृत्त्यपर्याप्तकके भी पर्याप्तनामकर्मका ही उदय होता है। अतः पर्याप्त नामकर्मका उदय होनेपर एकेन्द्रिय जीव अपनी चार पर्याप्तियोंको पूर्ण करनेकी शक्तिसे युक्त होकर उनको पूरा करनेमें लग जाता है, दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव अपनी पांच पर्याप्तियोंको पूर्ण करनेकी शक्तिसे युक्त होकर उन पांचोंको पूरा करनेमें लग जाते हैं । संज्ञीपञ्चेन्द्रिय जीव अपनी छः पर्याप्तियोंको पूरा करनेकी शक्तिसे युक्त होकर उन छहोंको पूरा करनेमें लग जाता है । और जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं होती, अर्थात् शरीरपर्याप्तिके अन्तर्मुहूर्तकालमें एक समय कम काल तक वे जीव निर्वृत्त्यपर्याप्त कहे जाते हैं । क्यों कि निवृत्ति अर्थात् शरीरकी निष्पत्तिसे जो अपर्याप्त यानी अपूर्ण होते हैं उन्हें निर्वृत्त्यपर्याप्त कहते हैं ऐसी निर्वृत्त्यपर्याप्त शब्दकी व्युत्पत्ति है । सारांश यह है कि यहां ग्रन्थकारने सैनी पश्चेन्द्रिय जीवकी अपेक्षासे कथन किया है; क्योंकि मनःपर्याप्ति उसीके होती है । किन्तु अन्य ग्रन्थों में 'जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तबतक जीव निर्वृत्त्यपर्याप्त होता है' ऐसा कथन सब जीवोंकी अपेक्षासे किया है ॥ १३६ ॥ अब लब्धपर्याप्तका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जो जीव श्वासके अट्ठारहवें भागमें मर जाता है और एक भी पर्याप्तिको समाप्त नहीं करपाता, उसे लब्ध्यपर्याप्त १ व एका (१), ल म सग एका। २ मग लद्धियपुण्णो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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